कोविड के चलते मधेपुरा कोर्ट में आज भी ये सुनवाई वर्चुअल मोड में ही हुई और बहस में ऑनलाइन ही पप्पू यादव के अधिवक्ता मधेपुरा कोर्ट से मनोज कुमार अम्बष्ट, पटना हाई कोर्ट के शिव नंदन भारती तथा सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता सह बार काउन्सिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा शामिल हुए. सूचक की तरफ से अधिवक्ता संजीव कुमार थे जबकि सरकार की तरफ से लोक अभियोजक इन्द्रकांत चौधरी बहस में हिस्सा ले रहे थे.
काराधीन अभियुक्त के अधिवक्ताओं ने जहाँ अपना पक्ष रखते जमानत की मांग की वहीँ लोक अभियोजक ने जमानत का जम कर विरोध करते कहा कि ये अपहरण का केस 32 साल पुराना है जो संगीन अपराध की श्रेणी में आता है. अभियुक्त के इस केस में आत्मसमर्पण नहीं करने के कारण इतने पुराने वाद का निष्पादन नहीं हो पाया जबकि अभियुक्त ने लोकसभा चुनाव 2020 के दौरान शपथ पत्र में भी इस केस की चर्चा की थी, जिससे यह स्पष्ट है कि उन्हें इस मुकदमें की जानकारी थी. अभियुक्त एक प्रभावशाली व्यक्ति हैं और यदि इन्हें जमानत पर छोड़ा जाता है ती निकट भविष्य में इस केस का दौरा-सुपर्दगी (कमिटमेंट) नहीं हो पायेगा.
सभी पक्षों को सुनने के बाद न्यायालय ने अभियुक्त पप्पू यादव की जमानत याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि अभियुक्त इस मामले (मुरलीगंज थाना काण्ड संख्या 09/ 1989) में 17.03.1989 को न्यायिक अभिरक्षा में लिए गए थे और तत्कालीन सीजेएम के द्वारा इनकी जमानत याचिका खारिज की गई थी. वाद में 04.08.1989 को अभियुक्त को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) का लाभ देते जमानत दिया गया था. जमानत के बाद लगातार २६ तिथियों तक अभियुक्त न्यायालय में सदेह उपस्थित नहीं हुए. यहाँ तक कि उसके बाद इनके प्रतिनिधित्व के आवेदन में यह दर्शाया गया कि अभियुक्त चुनाव में व्यस्त रहने या गाँव से बाहर रहने के कारण न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सकते. इससे प्रतीत होता है कि अभियुक्त ने इस केस को कभी गंभीरता से नहीं लिया और इसके बाद १६.१२.१९९३ को न्यायालय ने इनकी जमानत रद्द कर दी और तब से अबतक न्यायालय के द्वारा कई बार वारंट जारी किया गया.
सत्र न्यायाधीश ने आज जमानत याचिका खारिज करते हुए निचली अदालत को निर्देश दिया कि इस आदेश की प्राप्ति के एक महीने के अन्दर वे वाद को दौरा-सुपर्द करें और यदि दौरा-सुपुर्दगी के बाद छः माह के अन्दर वाद का निष्पादन नहीं होता है तो आवेदक फिर से जमानत याचिका दायर कर सकते हैं.
*MT Notes: 1.दौरा-सुपुर्दगी या कमिटमेंट एक न्यायिक प्रक्रिया है जिसके तहत वैसे मामले जिसके विचारण का अधिकार सत्र न्यायालय को है, उस वाद को अभियुक्त की उपस्थिति के पश्चात मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी या कनीय न्यायालय विचरण के लिए सत्र न्यायालय भेजता है.) 2. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) का लाभ काराधीन अभियुक्त को तब दिया जाता है जब जेल जाने की तिथि से 60 या 90 दिनों (वाद की प्रकृति पर आधारित) के अन्दर पुलिस आरोप पत्र नहीं समर्पित करती है.
(विधि संवाददाता)

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