कहीं जयंती तो कहीं........!

01 फ़रवरी महान समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी भूपेंद्र नारायण मंडल की जयंती मनाई जाती है. भूपेंद्र बाबू आजादी के बाद समाजवादी धड़े के नेता हुए. वे सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे. आज भी समाजवाद के नाम पर राजनीति करनेवाले राजनेता उनके नाम पर अपनी राजनीति चमकाते आ रहे हैं. 1992 में समाजवादी राजनीति का नेतृत्व करने वाले शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने मधेपुरा में भूपेन्द्र बाबू के नाम पर विश्वविद्यालय की स्थापना की. शायद इन राजनेताओं की आशा तो यही रही होगी कि भूपेंद्र बाबू जिन वंचितों और गरीबों की लड़ाई लड़े वे शिक्षित हो समाजवाद के सपने को साकार करेंगे. फिर 1999 से 2001 के बीच संचार मंत्री रहते हुए वर्तमान लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान ने भूपेंद्र बाबू पर डाक टिकट भी जारी किया था. उनका उद्देश्य भी भूपेद्र बाबू के समाजवाद को देश के कोने-कोने तक पहुँचाने का ही रहा होगा. इसके अलावे भी जिले में कई इमारतें उनके नाम से मिल जाएँगे. लेकिन उनकी 112वीं जयंती पर जिले में हुआ क्या ?
          चूंकि भूपेंद्र बाबू मधेपुरा के रहनेवाले थे इसलिए जिले में उनकी 112 वीं जयंती पर कई कार्यक्रम आयोजित हुए, लेकिन उनके नाम पर स्थापित भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम हमें तो सिर्फ मजाक लगा.
            सुबह जागते ही मै भूपेंद्र बाबू की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम को कवरेज करने के लिए तैयार था. इच्छा भी थी और आलोक मामा का डर भी. सबसे पहले भूपेंद्र चौक पर 10 बजे कार्यक्रम आयोजित किया गया. यहाँ स्कूली बच्चों के द्वारा प्रभातफेरी भी निकाली गई. मंत्री प्रो. चंद्रशेखर जी भी पहुंचे थे. कार्यक्रम छोटा था पर अच्छा था. दूसरा कार्यक्रम भूपेंद्र विचार मंच की ओर से भूपेंद्र बाबू के पैतृक गाँव रानीपट्टी में आयोजित हुआ और यहाँ भी बिहार सरकार के मंत्री प्रो. चंद्रशेखर और पूर्व मंत्री नरेन्द्र नारायण यादव शामिल हुए. जिले के बुद्धिजीवी भी यहीं थे. कुर्सियां कुछ 100-200 रही होगी, बांकी लोग मंच के सामने पाल पर बैठे थे. समाजवाद की गैर बराबरी साफ दिख रही थी. शायद लोग भी अनुभव कर रहे थे इसीलिए पाल पर जगह होते हुए भी लोग बैठने से अच्छा खड़ा रहना समझ रहे थे. मैं भी किसी की कुर्सी छीनने से बेहतर पाल पर बैठना स्वीकार किया. इससे एक फायदा यह हुआ कि लोगों की कार्यक्रम पर प्रतिक्रिया भी तुरंत मिलते रही. घंटों कार्यक्रम चला लेकिन लोग जमे रहे. चाहे वो पाल पर हो या खड़े.
         भले ही भूपेंद्र बाबु के पैतृक गाँव रानीपट्टी में लोग नीचे पाल पर बैठ कर भी भाषण सुन रहे थे, लेकिन उनके नाम पर स्थापित भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय में उनकी जयंती और  इस अवसर पर मनाया जाने वाला विश्वविद्यालय का शायद 24वां स्थापना दिवस कार्यक्रम तो मुझे मजाक ही लगा. पहले तो तोरण द्वार पर लगा फ्लेक्स ही कुछ अलग. फ्लेक्स के एक ओर भूपेंद्र बाबू का चित्र और एक बगल डॉ. (प्रो.) आर.के. यादव “रवि” का चित्र. मतलब और उद्देश्य आयोजक ही बता पाएँगे. डॉ. रवि कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और उद्घाटनकर्ता थे. कार्यक्रम में कुलपति नहीं थे. मजे की बात यह थी कि जिस कुलसचिव का नाम निवेदक में था और जिसके नाम पर शायद आमंत्रण-पत्र बंटा वे भी नदारद थे. लोगों की संख्या कम देखा तो बाहर निकल कर छात्रों और कुछ शिक्षकों से बात किया तो पता चला उन्हें पता ही नहीं था. मतलब न छात्र को सूचना थी न छात्र संगठन को और न ही पत्रकारों को. खाली कुर्सियों के बीच हुए इस कार्यक्रम को क्या सिर्फ खानापूरी नहीं कहा जाय? यही सवाल जब प्रति-कुलपति से पूछा गया तो वे इसके लिए लोगों की संवेदनहीनता को जिम्मेदार बताने लगे. उनका दावा था आयोजकों ने इसका पूरा प्रचार-प्रसार किया लेकिन लोग नहीं आए. सवाल तो हाजिर था क्योंकि हमें भी सूचना नहीं थी. मेरे साथ विद्यार्थी परिषद के नेता राहुल भी थे उन्हें भी कोई खबर नहीं थी और कुछ शिक्षक और छात्र से तो हम पूछ ही चुके थे. जब उनसे पूछा गया की मीडिया को भी खबर नहीं थी. तो प्रति-कुलपति महोदय का जवाब था वो तो व्यवस्थापक बताएँगे. लेकिन निमंत्रण देकर कुलसचिव कहाँ चले गए? जवाब फिर अनभिज्ञता वाली.
    मंच पर बैठे कई गणमान्य रानीपट्टी से इसलिए जल्दी आ गए क्योंकि उन्हें लगा यहाँ का कार्यक्रम और अच्छा होगा. लेकिन उन्हें निराश होना पड़ा. मंच पर बैठे कई अधिकारी भी उद्घाटन के 15-20 मिनट बाद ही निकल लिए. क्या यह दुखद नहीं था ? भूपेन्द्र बाबू हमेशा समाज के वंचित लोगों की लड़ाई लड़े. लेकिन आज हालत यह रही कि उनकी जयंती के साथ विश्वविद्यालय के 24वें स्थापना दिवस के लिए दस लोग भी जुटाने में विश्वविद्यालय प्रशासन अक्षम रहा. जबकि सिर्फ शिक्षक, कर्मचारी और विश्वविद्यालय के छात्र उपस्थित हो जाते तो जयंती धूम-धाम से मन जाती.
    अंत में हाल की एक घटना का जिक्र करना चाहता हूँ. 26 जनवरी को भूपेंद्र बाबू के ही पैतृक गाँव में एक घटना घटी थी. वहाँ के अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में झंडारोहण के लिए हुए कुछ समय की देरी ने लोगों को इतना आक्रोशित किया कि उन्होंने झंडारोहण के लिए पहुंचे चिकित्सक और प्रखंड स्वास्थ्य प्रबंधक को बंधक बना लिया और उन्हें झंडारोहण करने से रोक दिया था. उस वक्त लोगों का सिर्फ यही कहना था कि वैसे तो कभी नहीं आते कम से कम झंडा फहराने तो समय पर आ जाते....
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
कहीं जयंती तो कहीं........! कहीं जयंती तो कहीं........! Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on February 02, 2016 Rating: 5

1 comment:

  1. accha likha h........on spot journlism.....kash main stream media me aise hi likhne ki chhut hoti

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