राजनीतिनामा (2): मूर्ख बना भोगते हैं सत्ता का सुख

राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता और कोई दगा भी नहीं होता. यही कारण है कि जिस कांग्रेस को हटाकर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने, वही अरविंद केजरीवाल बिहार और दिल्ली के मंच पर नीतीश के साथ मंच साझा कर रहे हैं. मालूम हो कि बिहार में नीतीश कुमार के साथ लालू यादव खड़े हैं और उनकी पार्टी राजद को कांग्रेस का साथ है. एक ओर जहां दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल कांग्रेस पार्टी और शीला दीक्षित की सरकार को कोसते नजर आ रहे थे, वहीं बिहार की कांग्रेस पार्टी पर चुप्पी साध रखी है. राजनीति में चुप्पी भी बड़े काम की चीज होती है, जिसे अरविंद बखूबी जानते हैं. एक स्थान पर दुश्मन और दूसरे स्थान पर दोस्त, यह राजनीति की चालें हैं, जिसे मतदाताओं को समझना आवश्यक है, नहीं तो ये राजनेता भोले-भाले मतदाताओं को मूर्ख बनाते रहेंगे.
            यह पहली बार नहीं है जब राजनीति में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे नेता एक साथ आए हैं. याद होगा कि बिहार में कांग्रेस को हटाकर जनता दल की सरकार आई थी. हालांकि बिहार की राजनीति में लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद व्यापक परिवर्तन आए और सामाजिक तौर पर लोग अपने हक के लिए जगे. लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के द्वारा मंडल आयोग लागू किया जाना जिम्मेदार रहा और इसका भरपूर फायदा लालू यादव ने उठाया. बिहार में जनता दल ने कांग्रेस को हराया था और लालू वहां की सत्ता हासिल की थी. सत्ता हासिल क्या की थी, केंद्र में मौजूद जनता दल सरकार ने उन्हें दिल्ली से बिहार भेजकर मुख्यमंत्री का पद बतौर गिफ्ट दिया था. शुरुआती दौर में उन्होंने राजधानी पटना का जिस तरह कायाकल्प किया और अपनी पहचान कायम की, सफलता हासिल की, यह कहानी विरले ही भारतीय राजनीति में देखने को मिलती है. बदलते वक्त के साथ लालू यादव भी बदले और उनकी राजनीति भी. जिस कांग्रेस को हटाकर वह सत्तारूढ़ हुए थे, उसी पार्टी के सहयोग से अगली बार बिहार से सरकार बनाई. फिर जब उन्होंने सत्ता पर काबिज रहने के लिए अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया तो उनके तमाम सहयोगी विपक्ष में जा बैठे. फिर उन्हें हराने के लिए जेडीयू और बीजेपी ने गठबंधन किया और विधानसभा चुनाव में जीत होने पर दिल्ली ने फिर अपना इतिहास दोहराया और वहां के चुने गए विधायकों पर नीतीश कुमार को नेता के तौर पर थोप दिया गया. फिर नीतीश ने राजनीति में क्या-क्या चालें चलीं, यह किसी से छुपी हुई नहीं है. जिस पार्टी को हराने के लिए लोगों से वोट मांगा फिर उसी के साथ कंधा मिला लिया। नेता को सिर्फ दावा ही करते हैं और फिर नीतीश भी किसी से कम क्यों रहें?
         जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने वाले और सत्ता हासिल करने के बाद अपने विधानसभा या लोकसभा को भूलने वाले ये नेता भाई-भतीजावाद का क्या खेल खेलते हैं, यह बिहार के मतदाताओं को बखूबी समझनी चाहिए. जब तक बिहार के मतदाता इन राजनेताओं की गंदी चालों को नहीं समझेंगे, तब तक राजनेता आमलोगों को मूर्ख बनाते रहेंगे और सत्ता का भोग भोगते रहेंगे. जरा याद करें, विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतने वाले या हारने वाले बड़े नेताओं को, जिनकी तूती पूरे देश में बोलती थी और है. कभी वक्त ऐसा भी था, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में सबसे अधिक प्रतिनिधित्व बिहार का होता था लेकिन विकास के नाम पर इन्होंने सदैव अपने मतदाताओं के साथ मजाक किया है. मसलन, मधेपुरा को ही लें. यहीं की मिट्टी में वीपी मंडल जैसे नेता पैदा हुए जिनकी रिपोर्ट ने देश की दशा और दिशा बदलकर रख दी. यहां की मिट्टी से भले ही लालू यादव और शरद यादव पैदा न हुए हों लेकिन यहीं से जीतकर संसद का मुंह देखा है. राष्ट्रीय नेता के तौर पर इन दोनों नेताओं ने जो भी काम किया हो, शरद यादव को बेहतर सांसद होने का पुरस्कार भी मिला हो लेकिन इन दोनों ने अपने संसदीय क्षेत्र को बेहतर संसदीय क्षेत्र के तौर पर राष्ट्रीय पटल पर उभार नहीं पाए. आज भी यह क्षेत्र विकास से किस तरह कोसों दूर है, किसी से छुपी नहीं है. दोनों नेता गाहे-बगाहे संसदीय क्षेत्र का दौरा भी करते हैं लेकिन शर्म उनको मगर आती नहीं. छोटी-छोटी उपलब्धियों को यहां की जनता के बीच बड़ा बनाकर ऐसे पेश करते हैं, जैसे उनसे बेहतर उनका प्रतिनिधि कोई हो ही नहीं सकता है. पूरे इलाके के लोग इतने सीधे और शांत हैं कि वे उनकी लोकलुभावन बातों में आ जाते हैं और उन्हें आंखें मूंद कर वोट देते हैं और उनके नाम पर मर-मिटने के लिए तैयार रहते हैं.
        स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व और बाद के कई दशकों तक केंद्रीय राजनीति में यहां के नेताओं का दखल होता रहा है लेकिन बदलते वक्त के साथ यहां के नेता सिर्फ सीटों की संख्या के मामले में दुधारू गाय के रूप में तब्दील हो गए हैं. यहां के नेता समाज, परिवार के साथ-साथ एक-एक व्यक्ति के बीच फूट डालकर राज करने में माहिर हो गए हैं. अंग्रेज तो इस देश से चले गए लेकिन फूट डालो और राज करो की नीति यहां के नेताओं की नसों में घुसेड़ गए. इसका परिणाम यह हुआ कि यहां की राजनीति इस तरह कलुषित होती गई कि जाति और धर्म के नाम पर वोट डाला जाने लगा.
        बिहार में बदलाव तब तक नहीं हो सकता है जब तक यहां के लोग राजनेताओं की कठपुतली बने रहेंगे. राष्ट्रीय नेताओं की गंदी चालों को समझना होगा. बातों के जरिए हंसाने वाला सिर्फ हंसा कर फंसा सकता है, काम नहीं आ सकता, इस बात को समझना होगा. भले ही यहां की राजनीति जातिवाद पर अभी तक चलती आ रही है लेकिन सूबे के तमाम दलों के नेताओं ने यहां के लोगों के साथ किस तरह धोखा दिया है या भ्रमित किया है, यह जानना आवश्यक है. समय आ गया है कि अब राजनीति करने वाले नेताओं से हिसाब लिया जाना चाहिए और पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने क्या किया है. विकास की बात करते हैं तो ये नेता बताएं कि पूरे सूबे से पलायन क्यों नहीं रूक रहा है या फिर ऐसी स्थिति क्यों नहीं बन रही है कि दूसरे राज्यों से श्रमिक बिहार में काम करने आएं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
राजनीतिनामा (2): मूर्ख बना भोगते हैं सत्ता का सुख राजनीतिनामा (2): मूर्ख बना भोगते हैं सत्ता का सुख Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on August 29, 2015 Rating: 5

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