समाज की सेवा का सबसे बड़ा और
प्रभावी माध्यम है उन लोगों के दुःख-दर्दों को जानना, पहचानना और निवारण के प्रयास करना जो समाज के सबसे
ज्यादा पिछड़े, दीन-हीन और उपेक्षित हैं।
यों तो सेवा के कई सारे माध्यम हैं जिनमें हमारे देश के देशी-विदेशी फण्डिंग से जीने वाले एनजीओ और दूसरे लोगों के समूह लगे हुए हैं लेकिन इंसान की सेवा का जो क्षेत्र है वही वस्तुतः सीधा आत्मतुष्टि और संतोषदायी है चाहे फिर इसका स्वरूप कैसा ही क्यों न हो। सामाजिक व्यवस्थाओं में संतुलन के लिए यह जरूरी है कि गरीब और अमीर के बीच की खाई कम हो तथा जो व्यक्ति सबसे अंतिम पंक्ति में खड़ा है उसे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने तथा स्वाभिमान एवं सुकून के साथ जीने के तमाम अवसर प्राप्त हों।
उसे ये अवसर दिलाने की जिम्मेदारी समाज के उन लोगों की है जो सक्षम हैं तथा सामजिक दायित्वों और व्यवस्थाओं से बंधे हुए हैं। समाज में जब तक गरीब और अमीर का असंतुलन रहेगा तब तक समस्याओं का निवारण नहीं हो सकता, और न ही हमारे लिए हो रहे तथा दीख रहे विकास का कोई फायदा मिल सकता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की धाराओं में हर वर्ग तथा हर किस्म के लोगों के कल्याण की भावनाएं समाहित हैं। यह अलग बात है कि हम अपना ही घर भरने की जुगत में उन सारे मूल्यों को तिलांजलि दे बैठे हैं जो समाज ने हमारे लिए निर्धारित कर रखे हैं तथा जिन पर हमें चलना चाहिए। आज की गलाकाट पूंजीवादी और प्रतिस्पर्धी दौड़ में एक ओर ग्राम्य स्वावलम्बन और ग्राम स्वराज की बातें हो रही हैं और दूसरी तरफ वैश्वीकरण तथा उदारीकरण की हवाओं ने आसमान को गूँजा रखा है। इस सारे माहौल में त्रिशंकु बना हुआ है तो वह व्यक्ति जो परंपरागत उद्योग-धंधों, कृषि, खेती की जमीन, ग्राम्य हुनरों और आत्मनिर्भरता के स्थायी साधनों के रूप में स्थानीय घरेलू और कुटीर उद्योगों तथा हस्तशिल्प को अपनी आजीविका का साधन बनाए हुए रहा है।
जब से ग्राम्य आत्मनिर्भरता की डोर गाँव के लोगों के हाथों से बाहर निकल गई है तभी से इन नई-नई समस्याओं का जन्म होता चला गया और हर तरफ पराश्रित और परजीवी बनने की मजबूरियां हमारे सामने आती जा रही हैं। और ऐसे में हमारी सामाजिक व्यवस्था के मूलाधार लगातार छीनते चले जा रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों तक तो शायद हमारे परंपरागत हुनर पूरी तरह पलायन ही कर चुके होंगे। इन सभी स्थितियों में गंभीर आत्मचिंतन का विषय यह है कि विकास और खुशहाली का लाभ उस व्यक्ति तक कैसे पहुंचे जो बरसों से या यों कहें कि पीढ़ियों से अपने उत्थान के दिवा स्वप्न देख रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं और देश के विकास को नई दशा व दिशा देने वाले महापुरुषों ने आम आदमी को ध्यान में रखकर ही अपनी सोच बनायी थी। चाहे फिर वे बाबा साहब अंबेड़कर हों या और कोई। डॉ. अम्बेडकर जाति-वर्ग और क्षेत्र की सीमाओं से परे वे व्यक्तित्व हैं जिनके विचार सार्वजनीन कल्याण के लिए मार्गदर्शक हैं। बाबासाहब हम सभी के लिए मार्गद्रष्टा और प्रेरक हैं। उनके समग्र व्यक्तित्व की ऊँचाइयों और गहराइयों को बिना किसी दुराग्रह या पूर्वाग्रह के पूरी ईमानदारी और निरपेक्ष भाव से जानने-समझने और उनका अनुकरण करने की आवश्यकता है। ख़ासकर उनके उपदेशों को अपना कर सामाजिक समरसता के लिए आज सबसे ज्यादा गंभीरतापूर्वक काम करने की आवश्यकता है जिसकी कि मौजूदा युग में कमी महसूस की जा रही है। हालांकि सरकारी विकास योजनाओं और आम आदमी तथा समाज एवं क्षेत्र के कल्याण की योजनाओं की वजह से बदलाव जरूर आया है लेकिन उतना नहीं आ पाया है जितना अपेक्षित था।
ऐसे में जागरुक लोगों पर यह जिम्मेदारी है कि वे समाज के प्रति अपने फर्ज को धर्म मानकर समझें और अपना ध्यान उस दिशा में केन्द्रित करें जहाँ वह व्यक्ति बैठा है जिसे स्वाभिमान के साथ जिन्दगी चाहिए और खुशहाली का सुकून भी। आज जागरुकता का अर्थ बदलता जा रहा है। समाज और क्षेत्र में जागरुकता क निश्चय ही विस्तार हुआ है लेकिन जागरुकता का फायदा लोग अपने हित साधने में ही ले रहे हैं जबकि उनकी जागरुकता का लाभ पूरे समाज तथा क्षेत्र को मिलना चाहिए था। यही कारण है कि सामाजिक विषमताओं के बीज रह-रह कर अंकुरित होते चले जाते हैं। आज हर क्षेत्र में पैसों की कोई कमी नहीं है, हर तरफ भरपूर रुपया-पैसा बरस रहा है। आज जरूरत सिर्फ ईमानदार प्रयासों, समाजोन्मुखी वृत्तियों तथा सेवा व्रत की है। कई बार यह देखा जाता है कि मुँहमांगा पारिश्रमिक देने के बावजूद सेवा करने वाले लोग नहीं मिल पा रहे हैं जिनमें ईमानदारी, परोपकार, करुणा और दया भावना से सेवा करने का माद्दा हो। सेवा को व्यवसायिकता से जोड़ कर भले देखा जा रहा हो लेकिन कर्मनिष्ठ सेवाव्रतियों की समाज में कमी होती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए समाज में फिर से सेवा धर्म की प्रतिष्ठा करने की जरूरत है। एकमात्र ऐसा माध्यम है जिससे समाज का भला हो सकता है और उन लोगों को विकास की मुख्य धारा में लाया जा सकता है जिन्हें वास्तविक रूप से आवश्यकता है।
समाज के जागरुक, समृद्ध और जिम्मेदार लोगों का यह परम दायित्व है कि वे अपने क्षुद्र स्वार्थों और संकीर्णताओं से ऊपर उठकर समाज की सेवा भावनाओं को अपनाएँ, तभी उनको वास्तविक तथा कालजयी यश-प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हो सकता है। वरना समाज सेवा के नाम पर बरसों से भीड़ आयी, घर भरने का काम किया और लोकप्रियता के चरम शिखरों का आस्वादन करके चली गई, आज उनका नामलेवा या तर्पण-श्राद्ध करने वाला भी कोई नहीं है। भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर की जयंती से बढ़कर ऐसा और मौका क्या हो सकता है। आइये संकल्प लें समाज के गरीब और अभावों से ग्रस्त लोगों की जिन्दगी में उजियारा भरने का।
महामना युगपुरुष डॉ. अम्बेड़कर जयंती पर सभी को शुभकामनाएं.....
यों तो सेवा के कई सारे माध्यम हैं जिनमें हमारे देश के देशी-विदेशी फण्डिंग से जीने वाले एनजीओ और दूसरे लोगों के समूह लगे हुए हैं लेकिन इंसान की सेवा का जो क्षेत्र है वही वस्तुतः सीधा आत्मतुष्टि और संतोषदायी है चाहे फिर इसका स्वरूप कैसा ही क्यों न हो। सामाजिक व्यवस्थाओं में संतुलन के लिए यह जरूरी है कि गरीब और अमीर के बीच की खाई कम हो तथा जो व्यक्ति सबसे अंतिम पंक्ति में खड़ा है उसे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने तथा स्वाभिमान एवं सुकून के साथ जीने के तमाम अवसर प्राप्त हों।
उसे ये अवसर दिलाने की जिम्मेदारी समाज के उन लोगों की है जो सक्षम हैं तथा सामजिक दायित्वों और व्यवस्थाओं से बंधे हुए हैं। समाज में जब तक गरीब और अमीर का असंतुलन रहेगा तब तक समस्याओं का निवारण नहीं हो सकता, और न ही हमारे लिए हो रहे तथा दीख रहे विकास का कोई फायदा मिल सकता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की धाराओं में हर वर्ग तथा हर किस्म के लोगों के कल्याण की भावनाएं समाहित हैं। यह अलग बात है कि हम अपना ही घर भरने की जुगत में उन सारे मूल्यों को तिलांजलि दे बैठे हैं जो समाज ने हमारे लिए निर्धारित कर रखे हैं तथा जिन पर हमें चलना चाहिए। आज की गलाकाट पूंजीवादी और प्रतिस्पर्धी दौड़ में एक ओर ग्राम्य स्वावलम्बन और ग्राम स्वराज की बातें हो रही हैं और दूसरी तरफ वैश्वीकरण तथा उदारीकरण की हवाओं ने आसमान को गूँजा रखा है। इस सारे माहौल में त्रिशंकु बना हुआ है तो वह व्यक्ति जो परंपरागत उद्योग-धंधों, कृषि, खेती की जमीन, ग्राम्य हुनरों और आत्मनिर्भरता के स्थायी साधनों के रूप में स्थानीय घरेलू और कुटीर उद्योगों तथा हस्तशिल्प को अपनी आजीविका का साधन बनाए हुए रहा है।
जब से ग्राम्य आत्मनिर्भरता की डोर गाँव के लोगों के हाथों से बाहर निकल गई है तभी से इन नई-नई समस्याओं का जन्म होता चला गया और हर तरफ पराश्रित और परजीवी बनने की मजबूरियां हमारे सामने आती जा रही हैं। और ऐसे में हमारी सामाजिक व्यवस्था के मूलाधार लगातार छीनते चले जा रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों तक तो शायद हमारे परंपरागत हुनर पूरी तरह पलायन ही कर चुके होंगे। इन सभी स्थितियों में गंभीर आत्मचिंतन का विषय यह है कि विकास और खुशहाली का लाभ उस व्यक्ति तक कैसे पहुंचे जो बरसों से या यों कहें कि पीढ़ियों से अपने उत्थान के दिवा स्वप्न देख रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं और देश के विकास को नई दशा व दिशा देने वाले महापुरुषों ने आम आदमी को ध्यान में रखकर ही अपनी सोच बनायी थी। चाहे फिर वे बाबा साहब अंबेड़कर हों या और कोई। डॉ. अम्बेडकर जाति-वर्ग और क्षेत्र की सीमाओं से परे वे व्यक्तित्व हैं जिनके विचार सार्वजनीन कल्याण के लिए मार्गदर्शक हैं। बाबासाहब हम सभी के लिए मार्गद्रष्टा और प्रेरक हैं। उनके समग्र व्यक्तित्व की ऊँचाइयों और गहराइयों को बिना किसी दुराग्रह या पूर्वाग्रह के पूरी ईमानदारी और निरपेक्ष भाव से जानने-समझने और उनका अनुकरण करने की आवश्यकता है। ख़ासकर उनके उपदेशों को अपना कर सामाजिक समरसता के लिए आज सबसे ज्यादा गंभीरतापूर्वक काम करने की आवश्यकता है जिसकी कि मौजूदा युग में कमी महसूस की जा रही है। हालांकि सरकारी विकास योजनाओं और आम आदमी तथा समाज एवं क्षेत्र के कल्याण की योजनाओं की वजह से बदलाव जरूर आया है लेकिन उतना नहीं आ पाया है जितना अपेक्षित था।
ऐसे में जागरुक लोगों पर यह जिम्मेदारी है कि वे समाज के प्रति अपने फर्ज को धर्म मानकर समझें और अपना ध्यान उस दिशा में केन्द्रित करें जहाँ वह व्यक्ति बैठा है जिसे स्वाभिमान के साथ जिन्दगी चाहिए और खुशहाली का सुकून भी। आज जागरुकता का अर्थ बदलता जा रहा है। समाज और क्षेत्र में जागरुकता क निश्चय ही विस्तार हुआ है लेकिन जागरुकता का फायदा लोग अपने हित साधने में ही ले रहे हैं जबकि उनकी जागरुकता का लाभ पूरे समाज तथा क्षेत्र को मिलना चाहिए था। यही कारण है कि सामाजिक विषमताओं के बीज रह-रह कर अंकुरित होते चले जाते हैं। आज हर क्षेत्र में पैसों की कोई कमी नहीं है, हर तरफ भरपूर रुपया-पैसा बरस रहा है। आज जरूरत सिर्फ ईमानदार प्रयासों, समाजोन्मुखी वृत्तियों तथा सेवा व्रत की है। कई बार यह देखा जाता है कि मुँहमांगा पारिश्रमिक देने के बावजूद सेवा करने वाले लोग नहीं मिल पा रहे हैं जिनमें ईमानदारी, परोपकार, करुणा और दया भावना से सेवा करने का माद्दा हो। सेवा को व्यवसायिकता से जोड़ कर भले देखा जा रहा हो लेकिन कर्मनिष्ठ सेवाव्रतियों की समाज में कमी होती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए समाज में फिर से सेवा धर्म की प्रतिष्ठा करने की जरूरत है। एकमात्र ऐसा माध्यम है जिससे समाज का भला हो सकता है और उन लोगों को विकास की मुख्य धारा में लाया जा सकता है जिन्हें वास्तविक रूप से आवश्यकता है।
समाज के जागरुक, समृद्ध और जिम्मेदार लोगों का यह परम दायित्व है कि वे अपने क्षुद्र स्वार्थों और संकीर्णताओं से ऊपर उठकर समाज की सेवा भावनाओं को अपनाएँ, तभी उनको वास्तविक तथा कालजयी यश-प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हो सकता है। वरना समाज सेवा के नाम पर बरसों से भीड़ आयी, घर भरने का काम किया और लोकप्रियता के चरम शिखरों का आस्वादन करके चली गई, आज उनका नामलेवा या तर्पण-श्राद्ध करने वाला भी कोई नहीं है। भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर की जयंती से बढ़कर ऐसा और मौका क्या हो सकता है। आइये संकल्प लें समाज के गरीब और अभावों से ग्रस्त लोगों की जिन्दगी में उजियारा भरने का।
महामना युगपुरुष डॉ. अम्बेड़कर जयंती पर सभी को शुभकामनाएं.....
डॉ. अम्बेड़कर दर्शन को आत्मसात करें जरूरतमन्दों को संबल दें
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
April 14, 2013
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