नदी भी
कभी -कभी
तोड़ती है दायरा अपना
और
बढती है शहर की तरफ
शहर भागता है
शरणस्थली की खोज में
वह देखती है उसे
अस्त-व्यस्त
आकुल-ब्याकुल
और
बदहवास
वह बटोरता है
अपनी जिंदगी
जिंदगी के साजो- सामान
उसकी आँखों में
उमड़ा है भय
ह्रदय में आक्रोश
अभी भी है---उसकी दिलचस्पी
दुनिया के चमक धमक में
उसे भय है दुनिया क्या कहेगी
क्या कहेंगे उसके लोग अपने
मै कैसे जी सकूँगा
बिना इनके
सोचा भी नहीं
जीना बिना जिनके
---और तुम भी क्या करोगी
भावनाओ में बहकर
आ गयी मेरी देहरी के अन्दर
पता नही कब
दाखिल होगी दूसरी देहरी में
नदी ने जाना है
आज यथार्थ अपना
शहर की आँखों से
देखते हुए
वह चुपचाप लौट आती है
अपने दायरे में
बिना कुछ कहे
और--- रोती है
अकेले में
सीचती है ह्रदय धरती का
पालती है शहर का वजूद
जब तक जीवित है
चुपचाप
और
ख़ामोश ।
कभी -कभी
तोड़ती है दायरा अपना
और
बढती है शहर की तरफ
शहर भागता है
शरणस्थली की खोज में
वह देखती है उसे
अस्त-व्यस्त
आकुल-ब्याकुल
और

बदहवास
वह बटोरता है
अपनी जिंदगी
जिंदगी के साजो- सामान
उसकी आँखों में
उमड़ा है भय
ह्रदय में आक्रोश
अभी भी है---उसकी दिलचस्पी
दुनिया के चमक धमक में
उसे भय है दुनिया क्या कहेगी
क्या कहेंगे उसके लोग अपने
मै कैसे जी सकूँगा
बिना इनके
सोचा भी नहीं
जीना बिना जिनके
---और तुम भी क्या करोगी
भावनाओ में बहकर
आ गयी मेरी देहरी के अन्दर
पता नही कब
दाखिल होगी दूसरी देहरी में
नदी ने जाना है
आज यथार्थ अपना
शहर की आँखों से
देखते हुए
वह चुपचाप लौट आती है
अपने दायरे में
बिना कुछ कहे
और--- रोती है
अकेले में
सीचती है ह्रदय धरती का
पालती है शहर का वजूद
जब तक जीवित है
चुपचाप
और
ख़ामोश ।
डॉ गायत्री सिंह, इलाहाबाद
इक नदी बहती है ... डॉ गायत्री सिंह
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
March 17, 2013
Rating:

very good...
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