कि जैसे देह के अंदर एक और देह
साँस के भीतर एक और साँस
कि जैसे रंगों में छिपे होते हैं
कई-कई रंग
रोशनी में रोशनी और
लहरों में लहर
विस्मृति के अंदर अनंत स्मृतियाँ
दबी होती हैं
कई सभ्यताएँ
दुनिया के भीतर दुनिया
तुम्हारे कोमल ह्रदय से निकलकर
प्रेम का कोई शावक
आना चाहता है हमारे करीब
शिकारी आँखों से छिपते हुए
और दुनिया की डरावनी ख़बरें
दबोच लेती हैं उसे
तब इसी उम्मीद और हौसले से
चलती है दुनिया कि
देह के अंदर होती है देह
और साँस के अंदर साँस.
(ख्यातिप्राप्त पुस्तक ‘राजधानी में एक उजबेक लड़की’ से साभार)
-अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा.
देह के अंदर देह और साँस के अंदर साँस///अरविन्द श्रीवास्तव
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 06, 2013
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