“रोज अखबारों में पढकर ये ख़याल आया हमें,
इस तरफ आती तो हम भी देखते फसले बहार”
यह
जमीनी हकीकत है उन इलाकों की जहां 18 अगस्त 2008 को कोसी दो तटबंधों के बीच से
आजाद होकर इन इलाकों की दूरियां तय की.यह वह तारीख है जो कोसी के लाखों लोगों के
लिए ताउम्र दर्द देने वाली तारीख बन इतिहास का काला अध्याय बन चुकी है.यूं तो इससे
पहले भी सात बार कोसी बेलगाम हुई थी, लेकिन इस बार जो त्रासदी की इबारत लिख गयी वह
आज भी रोंगटे खड़े कर देती है.
सुपौल,
सहरसा, मधेपुरा, अररिया के पैंतीस प्रखंड, 460 पंचायत, 980 गाँव और तीस लाख से
अधिक आबादी कोसी की विनाश लीला के गवाह बने.सैन्दों लोग काल के गाल में समा
गए.हजारों बेघर हुए तो सोना उगलने वाली खेतें रेगिस्तान में तब्दील हो गयी.नतीजा
सामने है कि किसान मजदूर बन गए और पलायन कोसी के लोगों की स्थाई किस्मत बन गयी.
सच यह है
कि चार साल बाद भी इलाके की सूरत नहीं बदली है.राज्य के मुख्यमंत्री ने बेहतर कोसी
बनाने का सपना दिखाया था लेकिन सपने की सच्चाई यह है कि मुरलीगंज में डायवर्सन के
सहारे जिंदगी बंधी हुई है तो बलुआहा पुल बनने का लोग चार सालों से इन्तजार कर रहे
हैं.बाद के दौरान जो गाँवों में सडकें ध्वस्त हुई वह आज भी सरकारी दावे की पोल खोल
रही है.यही हाल सुपौल जिला के छातापुर, बसंतपुर, त्रिवेणीगंज और प्रतापगंज इलाके
की है जहाँ ग्रामीण सड़कों का वजूद समाप्त हो गया है.
विश्व बैंक की सहायता से पुनर्वास योजना शुरू
की गयी है.खबर यह भी है कि ग्रामीण सड़कों
की सूरत विश्व बैंक की मदद से संवारी
जायेगी. लेकिन पुनर्वास योजना में भी बिचौलियों का खेल जारी है.बाद के दौरान
दलालों ने लाखों की संपत्ति अर्जित की. फसल मुआवजा से लेकर गृह क्षति अनुदान और
पशु क्षति अनुदान तक में जम कर धांधली की गयी.उदाहरण के तौर पर मुरलीगंज में
सत्ताधारी दल से जुड़े एक दलाल नेता ने जिसने कभी गाय का दर्शन तक नहीं किया था,
दो-दो गायों की क्षति का मुआवजा हासिल किया.

चार साल
बाद भी इस दुर्दशा के लिए जितने अधिकारी और राजनेता जिम्मेवार हैं, उससे कम आमलोग
भी जिम्मेवार नहीं हैं.कुसहा त्रासदी ने खैरात और लूट की संस्कृति विकसित की
है.खैरात के आदी हो चुके कुछ लोग आज भी कोसी मैया से तटबंध से बाहर आने की मन्नतें
मांगते हैं तो लूट के भागीदार रहे छुटभय्ये नेता से लेकर अधिकारी तक मनाते हैं कि
एक बार फिर बाढ़ आ जाए.वहीं अधिकांश लोग बाढ़ की कल्पना मात्र से ही सिहर उठते हैं.
ऐसा
नहीं है कि बाढ़ से ध्वस्त इलाके की तस्वीर पूरी तरह नहीं बदली. सड़क, पुल-पुलिया आज
भी त्रासदी के जख्म को याद करा रहे हैं.सूरत बदलने में सरकार की कोशिस सिफर ही कही
जा सकती है.तस्वीर बदली है लेकिन किसी खैरात से नहीं बल्कि अपनी जीजीविषा और मेहनत के बूते लोग खुद को पटरी पर वापस लाने की कवायद में जुटे हुए हैं.लेकिन सड़क और बिजली जैसी आधारभूत समस्याओं के बिना उनकी यह कवायद आधी-अधूरी साबित हो रही है.स्थानीय राजनीति, विकास कार्यों में कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार जैसी चीजें कब तक जख्मों को हरा रखेगी, कह पाना कठिन है.
कुसहा त्रासदी ..नहीं बदली चार साल बाद भी सूरत
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 18, 2012
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