राकेश सिंह/10 जुलाई 2012
“कितने भी क़ानून बन जाएँ, जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलेगी क़ानून सिर्फ किताबों तक ही सिमट कर रह जाती हैं.किताबों में बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिख रखी हैं, पर उन्हें अमल में नहीं लाते. महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1921 में मिला है.हिंदुओं का पवित्र ग्रन्थ अथर्ववेद कहता है, “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता”, अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं.जो बाद में महाभारत और मनुस्मृति में भी आया है.पर वहीं मनुस्मृति कहता है कि नारी और शूद्र को शिक्षा और धन नहीं देना चाहिए.यह विरोधाभास हमारे सोच में रही है.
दुनियां की महिलाओं की आबादी की 50% महिलायें निरक्षर हैं.दुनियां की 70% महिलाओं के पास न तो बैंक एकाउंट है और न ही चल या अचल संपत्ति. घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के धारा 3 के अनुसार सारे ऐसे कार्य जो महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक,यौन संबंधी और भावनात्मक तकलीफ प्रदान करते हैं,घरेलू हिंसा में आते हैं.इसलिए अब पुरुष वर्ग सावधान हो जाएँ. अब वह युग चला गया जब हमारे महाकवि लिखते थे, “अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी,आँचल में है दूध और आँखों में पानी”.यह आँखों का पानी अब तेज़ाब बन गया है,धारा 3 घरेलू
हिंसा अधिनियम 2005 के हिसाब से.और आँचल का दूध अब पुरुषों के लिए खतरे की घंटी बन गयी है.अब आप बिना पत्नी की सहमति के उसके साथ सहवास भी नहीं कर सके.उसे आप डरा नहीं सकते और न ही उनका इमोशनल ब्लैकमेल कर सकते हैं. घरेलू हिंसा अधिनियम की धाराएं इतनी कठोर है कि अब पुरुषों को एक बार नहीं सौ बार फूंक कर चलने की आवश्यकता है.अब महिलाओं की जिम्मेवारी नहीं रही कि वह ऑफिस से आकर खाना बनाये, बच्चे खिलाएं और कपड़ा धोएं और पुरुषों के आराम लिए आसन लगाएं.महिला बराबर की हकदार है.यदि वह नहीं चाहेगी तो पुरुषों को खुद खाना बनाना पड़ेगा, आपको अपने काम खुद करने होंगे.यहाँ तक कि आप हल्का मजाक भी अपनी पत्नी से नहीं कर सकते,यदि वह नहीं चाहेगी तो.”
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डा० रामलखन सिंह यादव |
उक्त बातें मधेपुरा व्यवहार न्यायालय के विद्वान प्रथम अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश डा० रामलखन सिंह यादव ने स्थानीय कला भवन में 8 जुलाई को ‘घरेलू हिंसा अधिनियम 2005’ की कार्यशाला के दौरान कहीं.उन्होंने आगे यह भी कहा कि मैंने पिछले तीस-चालीस सालों में क़ानून की हजारों किताबें पढ़ी हैं,पर इतनी व्यापक,विशाल,गहरी और कठोर परिभाषा (घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 3 में दी गयी) कहीं और नहीं पढ़ी है.
जो भी हो, पर घरेलू हिंसा पर बने क़ानून से ‘पुरुष प्रधान समाज’ को एक कड़ी चुनौती तो मिल ही चुकी है,पर जाहिर सी बात है जबतक पुरुष और महिला आपस में सामंजस्य बनाकर नहीं चलेंगे,तब तक परिवार सुखी नहीं रह सकता.
“अबला की आँखों का पानी अब तेज़ाब बन गया है”
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 10, 2012
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kal maine padha aurat ke hit me ek kanoon bana aur aaj attyachar
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