बाहर का भोजन

अजी सुनते हो,
कब से चिल्लाए जा रही हूँ।
ठहरिए, बेलन लेके आ रही हूँ।
मैं बोला ये क्या करती हो,
हरदम गुस्से में रहती हो।
ना इतनी जोर से चिल्लाओ,
इशारों में ही कह जाओ।
वो बेलन छोड़ के मुस्काई,
कुछ देर ठहर के फरमाई।
अब झटपट बाहर जाइए,
'कुछ' खाने को ले आइए।
मैं इसी ताक में था शायद
कह दे वो बाहर जाने को,
पहली बार कही हैं मैडम
बाहर से भोजन लाने को।
थी भीड़ बहुत ही सड़कों पे,
लग रहा जोर जोर से नारा।
मैं समझ गया बड़का जीता,
छोटका नेता फिर से हारा।
मैंने नजर दौड़ाया,
सोचा कोई ऐसा दुकान हो,
जहाँ ग्राहक के लिए
विक्रेता परेशान हो।
मैंने देखा कोई हाथ हिला रहाहै,
मिठाई की दुकान पे हमें बुला रहा है।

क्या समाचार है फलाना भाई,
आप कवि थे, कैसे बने हलुवाई।
बोले, हाल समाचार के लिए
सारी जिंदगी खड़ी है,
पहले कविता सुनले
बहुत देर से पड़ी है।
बिना ब्रेक के कुछ ही घंटों में
एक छोटी सी कविता सुनाई,
फिर दोनों आँखे उनकी
वाह-वाह को ललचाई।
वाह-वाह क्या बात है
भईया मेरी भी छूट्टी कर दो,
झोला लेकर आया हूँ,
मिठाईयाँ और समोसे भर दो।
चुकता करके दाम जो
वापस अपने घर को आए,
बीबी बोली क्या लाना था
 और क्या लेकर आए।
आप रहते हैं बाहर हजारों में,
बताइए, 'ओल' को क्या कहते हैं इशारों में।

--शम्भू साधारण,मधेपुरा
बाहर का भोजन बाहर का भोजन Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 24, 2011 Rating: 5

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