राकेश सिंह/३० सितम्बर २०११
अभी कल ही मधेपुरा टाइम्स पर एक खबर प्रकाशित हुई ‘बर्बरता की हद पार कर गया एक जल्लाद शिक्षक’.कॉन्वेंट स्कूल के एक शिक्षक से सम्बंधित इस खबर को जानकर काफी देर तक मैं सदमे में रहा.टाइम्स कार्यालय में इस खबर को लिखते वक्त प्रधान संपादक का भी क्रोध सातवें आसमान पर था.जो भी हो,शब्दों को संयमित कर इस खबर को छापी गयी.
सरकार द्वारा लागू किये जा रहे आरटीई के प्रावधानों में कॉन्वेंट स्कूलों को योग्य शिक्षक रखना है, जिसका मानदंड सरकार तय करने जा रही है.डाउनबास्को स्कूल मधेपुरा की प्रिंसिपल चन्द्रिका यादव का मानना है कि सरकार द्वारा ट्रेंड टीचर रखने की बाध्यता गलत है,अनुभवी शिक्षक तो जरूर होने चाहिए और शिक्षकों को टीचिंग की ट्रेनिंग मिलनी चाहिए.बहुत हद तक इनकी बात सही लगती है.पर क्या अभी कौन्वेंट्स इस मानदंड को अपना रहे हैं?
बिलकुल नहीं.दरअसल बिहार में अब तक कौवेंट्स स्कूलों के द्वारा पैसे कमाने की होड़ सी लगी हुई है.पढाई बेहतर हो,इस पर स्कूल प्रशासन कम ही ध्यान दे रहा है और कमाई बेहतर हो,यही पहला लक्ष्य है.योग्य शिक्षक रखना इनकी मानसिक बूते के बाहर की चीज लगती है.कारण साफ़ है,योग्य शिक्षकों को रखने से इन्हें उन्हें ज्यादा वेतन देना पड़ेगा और बचत कम होगी.बिहार में बेरोजगारों की कमी अभी भी नहीं है.हजार-दो हजार पर भी लाखों शिक्षक इन कौन्वेंट्स में पढाने के लिए तैयार हैं.बता दें कि पूरे बिहार में अभी इन निजी विद्यालयों
में करीब सात लाख शिक्षक और कर्मचारी काम कर रहे हैं.मधेपुरा के कौन्वेंट्स की यदि बात करें तो दस फीसदी भी योग्य शिक्षक इन स्कूलों में में नहीं हैं.विश्वास न हो तो किसी भी तथाकथित बड़े स्कूल के बच्चों की कॉपी चेक कीजिए.इसमें इसके शिक्षकों द्वारा गलत को सही और सही को गलत कर जांचा हुआ मिल सकता है.कहा जाता है,पढाने के लिए पढ़ना जरूरी है,पर यदि इन शिक्षकों को पढ़ने की आदत पहले से रही होती तो ये हजार-पन्द्रह सौ में एक महीना इन स्कूलों में अपनी सेवा नहीं दे रहे होते.कुछ विद्यालयों ने तो बाहर से भी शिक्षक माँगा रखे हैं,जिसका प्रचार-प्रसार वे अभिभावक को लुभाने के लिए खूब करते है.जबकि इनमे से भी अधिकाँश शिक्षक बाहर के शुद्ध बेरोजगार होते हैं,जो आसानी से दो पैसे कमाने के लोभ से यहाँ आ जाते हैं.दरअसल शिक्षा इन शिक्षकों का पहला लक्ष्य नहीं होता बल्कि ये बेरोजगारी के चलते और पैसे के अभाव में यहाँ काम करने को विवश होते हैं.स्कूल प्रशासन भी इनकी इसी मजबूरी का फायदा उठाते हैं और ये शिक्षक भी यहाँ अक्सर शोषण का शिकार होते रहते हैं.इनकी हालत भी ‘डगरे के बैगन’ की तरह होती है.दूसरा कॉन्वेंट जैसे ही कुछ ज्यादा पैसे देने का ऑफर देता है,ये वहाँ चले जाते हैं.
में करीब सात लाख शिक्षक और कर्मचारी काम कर रहे हैं.मधेपुरा के कौन्वेंट्स की यदि बात करें तो दस फीसदी भी योग्य शिक्षक इन स्कूलों में में नहीं हैं.विश्वास न हो तो किसी भी तथाकथित बड़े स्कूल के बच्चों की कॉपी चेक कीजिए.इसमें इसके शिक्षकों द्वारा गलत को सही और सही को गलत कर जांचा हुआ मिल सकता है.कहा जाता है,पढाने के लिए पढ़ना जरूरी है,पर यदि इन शिक्षकों को पढ़ने की आदत पहले से रही होती तो ये हजार-पन्द्रह सौ में एक महीना इन स्कूलों में अपनी सेवा नहीं दे रहे होते.कुछ विद्यालयों ने तो बाहर से भी शिक्षक माँगा रखे हैं,जिसका प्रचार-प्रसार वे अभिभावक को लुभाने के लिए खूब करते है.जबकि इनमे से भी अधिकाँश शिक्षक बाहर के शुद्ध बेरोजगार होते हैं,जो आसानी से दो पैसे कमाने के लोभ से यहाँ आ जाते हैं.दरअसल शिक्षा इन शिक्षकों का पहला लक्ष्य नहीं होता बल्कि ये बेरोजगारी के चलते और पैसे के अभाव में यहाँ काम करने को विवश होते हैं.स्कूल प्रशासन भी इनकी इसी मजबूरी का फायदा उठाते हैं और ये शिक्षक भी यहाँ अक्सर शोषण का शिकार होते रहते हैं.इनकी हालत भी ‘डगरे के बैगन’ की तरह होती है.दूसरा कॉन्वेंट जैसे ही कुछ ज्यादा पैसे देने का ऑफर देता है,ये वहाँ चले जाते हैं.
त्रिवेणीगंज ,सुपौल के उस निजी स्कूल की घटना जिसमे LKG के पांच वर्षीय छात्र का कपड़ा प्रेस करने के आयरन से एक शिक्षक ने चूतड़ जला दिया, से यह स्पष्ट होता है कि इन कौन्वेंट्स के बहुत से शिक्षक न केवल अयोग्य होते हैं,बल्कि मानसिक रूप से भी दिवालिया होते हैं.(क्रमश:)
क्या लग सकेगी निजी स्कूलों की लूट पर लगाम? (भाग-२)
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
September 30, 2011
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