कोसी नदी पर कुसहा बांध के टूटने की यह तीसरी बरसी है। आज से तीन साल पहले आज ही के दिन बांध टूटा था और फिर पूरा कोसी इलाका जलमग्न हुआ था। चाहे सुपौल हो, सहरसा हो, मधेपुरा हो या फिर पूर्णिया, कटिहार का इलाका।
कोई भी इलाका अछूता नहीं रहा था और करीब 33 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे।
कोई भी इलाका अछूता नहीं रहा था और करीब 33 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे।
सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ गैर-सरकारी एजेंसियां लोगों की मदद के लिए आगे आई थी। लेकिन ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि कोशी क्षेत्र के तमाम सांसद उस वक्त क्या कर रहे थे? सवाल यह भी है कि क्या कोसी द्वारा की गई तबाही पर संसद में बहस हुई थी? क्या पूरे इलाके के जितने भी प्रतिनिधि हैं, उन्होंने देश के सामने अपनी जनता के दर्द को सामने रखा था। 'हाथ कंगन को आरसी क्या" की तर्ज पर संसद में हुई बहस पर गौर कर लें, अपने प्रतिनिधि का चेहरा आपके सामने होगा। फिर तय करें कि जिन प्रतिनिधियों को आम जनता चुनकर संसद में भेजती है, वह सांसद बनने पर क्या करते हैं। इतना दावा तो कोई भी कर सकता है कि यदि कोसी की जनता सही प्रतिनिधि को चुनकर संसद में भेजती तो कोसी क्षेत्र का यह हस्र नहीं होता, जो फिलहाल है।
दूसरी बातों की ओर न जाते हुए बाढ़ को लेकर बातें करें तो संसद में नियम 193 के तहत देश के विभिन्न भागों में सूखा और बाढ़ को लेकर 28 जुलाई, 2009 को छोटी अवधि की बहस हुई थी। इस बहस की शुरुआत मुंगेर के सांसद राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने कुछ इन शब्दों में की थी, 'यह ऐसा मानवीय मुद्दा है कि इस देश की लगभग 75 प्रतिशत आबादी इस मुद्दे के साथ जुड़ी हुई है। चाहे बाढ़ हो, सुखाड़ हो या कोई और समस्या हो, हमारे देश की अधिकांश आबादी इससे प्रभावित होती है। इस देश की नीयति है कि प्रति वर्ष हम बाढ़ और सुखाड़ पर चर्चा करते हैं। कभी बाढ़ पर चर्चा करते हैं, कभी सुखाड़ पर चर्चा करते हैं। हम चर्चा करते हैं, बहस होती है, सरकार का जवाब भी होता है, सरकार कई तरह की लुभावनी घोषणाएं भी करती है, मेज थपथपाई जाती है और उसके बाद हम अगले वर्ष फिर उसी बहस पर आकर खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह सारी व्यवस्था ढाक के तीन पात वाली स्थिति है कि हम बहस करते रहें, हमारी समस्याएं प्रति वर्ष मुंह बाए हमारे साथ खड़ी रहें और हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी उसका कोई निराकरण नहीं कर पाएं, जबकि हमारा देश पूरे तौर पर कृषि पर आधारित है। चाहे बाढ़ हो या सुखाड़, इन दोनों परिस्थितियों में अगर सबसे ज्यादा प्रभाव किसी पर पड़ता है तो वह कृषि पर पड़ता है और कृषि हमारे देश की मूल अर्थव्यवस्था का आधार है। अगर हमारी पैदावार सही नहीं होगी तो हम लाख प्रयास करें, औद्योगिक उत्पादन, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट हर चीज करें, लेकिन अपनी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण नहीं पा सकते। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि हम इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में कोई कार्रवाई करें। हमें चाहिए कि पहले हम अपने संसाधनों को विकसित करें। हम विकास की हर बार कल्पना करते हैं। हम विकास की चर्चा हर साल करते हैं। हम कहते हैं कि हमारा देश लगातार विकास की ओर बढ़ रहा है, हम विकसित राष्ट्र की तरफ बढ़ रहे हैं, हम अगले 15-20 वर्षों में विकसित राष्ट्र का दर्जा पा लेंगे। लेकिन हम संसाधन कहां जुटा पा रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था का जो मूल आधार है, उसके लिए जो संसाधन हैं, उन्हें हम एकत्रित नहीं कर पा रहे हैं, संगठित नहीं कर पा रहे हैं। आज इतने दिनों बाद भी सबसे दुखद स्थिति यह है कि बाढ़ और सुखाड़ से प्रभावित होकर हमारे देश के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक बात शायद हम लोगों के लिए और कोई नहीं हो सकती है। इसलिए हमें चाहिए कि हम संसाधन विकसित करें और उसके बाद विकास की चर्चा करें। आज हम संसाधन विकसित नहीं कर पा रहे हैं और विकास की चर्चा कर रहे हैं। हमारे यहां हर साल प्राकृतिक आपदा आती है।"
उन्होंने सवाल किया था कि वर्ष 2000 में भारत और नेपाल के साथ वार्ता करने के लिए एक कमेटी बनी। आज वर्ष 2009 चल रहा है, यानी इन नौ वर्षों में उस कमेटी की मात्र तीन बैठकें हुई हैं। अगर इन नौ वर्षों में तीन ही बैठकें हुई हैं, तो यह सरकार इस सवाल पर कितनी गंभीर है, यह आप खुद देख लीजिए। हम सरकार से पूछना चाहते हैं कि आप इस मामले में क्या करना चाहते हैं।
ललन सिंह के बाद श्रावस्ती के डॉ. विनय कुमार पांडेय, मछलीशहर के तूफानी सरोज, इलाहाबाद के रेवती रमण सिंह, बीड के गोपीनाथ मुंडे, टी.आर बालू, बासुदेव आचार्य, दारा सिंह चौहान, अर्जुन चरण सेठी, आनंदराव अडसूल, एम. थामीदूरल ने हिस्सा लिया। इनके बाद गोड्डा के निशिकांत दूबे ने झारखंड की स्थिति पर अपनी बात रखी। इसके बाद चरणदास महंत, बृजभूषण शरण सिंह, रमेश राठौर, पी, लिंगम, नवादा के भोला सिंह, पबन सिंह घटोबर, समस्तीपुर के महेश्वर हजारी, बक्सर के
जगदानंद सिंह, गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ, अधीर चौधरी, प्रसनता कुमार मजुमदार, पूर्वी चंपारण के राधा मोहन सिंह ने अपनी बात रखी थी।
जगदानंद सिंह, गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ, अधीर चौधरी, प्रसनता कुमार मजुमदार, पूर्वी चंपारण के राधा मोहन सिंह ने अपनी बात रखी थी।
मधुबनी का सांसद हुकुमदेव नारायण सिंह ने अपनी बात रखते हुए कहा था, 'बिहार में हर साल चार-पांच जिला में आंशिक तौर पर सुखाड़ की छाया रहती है। चार-पांच जिला में बाढ़ से परेशानी रहती है। उसी तरह देश के लगभग 200 जिला में निरंतर सुखाड़ रहता है। हर पांच साल पर छोटा,
दस साल पर मंझोला और बीस साल पर बड़ा अकाल आता है। अकालचक्र का इतिहास नहीं लिखा गया है। मौसम विज्ञानी तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक मिलकर अकाल पर शोध करें और उसके कालचक्र का इतिहास तैयार करें। हर सौ साल पर भयंकर अकाल आता है। बिहार में ओर देश के अन्य हिस्से में 1914-15 में अकाल आया था। अब 2014 -2015 में अकाल का भयंकर प्रकोप आने वाला है। 2009 में फसल मारी जाएगी इसका प्रभाव 2010 में पड़ेगा। जब अकाल का इतिहास बन जाएगा तब उसके कारण और निदान की खोज की जाएगी। कारण का पता लगाए बिना निदान नहीं खोजा जा सकता है। वैज्ञानिक अपने विज्ञान पर अहंकार करते है और अवैज्ञानिकता को विज्ञान मान लेते हैं। किसान अनपढ़ होता है परंतु उसके पास अनुभव गम्य ज्ञान होता है। उस अनुभव और जानकारी का लाभ उठाने का उपाय किया जाए। अंध आधुनिकता के कारण हमने प्राचीनता और प्रचिलत व्यवहारिक अनुभव गम्य ज्ञान को अंधविश्वास मान लिया है। अंधविश्वास से अंध अविश्वास ज्यादा खतरनाक होता है। स्थायी निदान खोजा जाए।"
दस साल पर मंझोला और बीस साल पर बड़ा अकाल आता है। अकालचक्र का इतिहास नहीं लिखा गया है। मौसम विज्ञानी तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक मिलकर अकाल पर शोध करें और उसके कालचक्र का इतिहास तैयार करें। हर सौ साल पर भयंकर अकाल आता है। बिहार में ओर देश के अन्य हिस्से में 1914-15 में अकाल आया था। अब 2014 -2015 में अकाल का भयंकर प्रकोप आने वाला है। 2009 में फसल मारी जाएगी इसका प्रभाव 2010 में पड़ेगा। जब अकाल का इतिहास बन जाएगा तब उसके कारण और निदान की खोज की जाएगी। कारण का पता लगाए बिना निदान नहीं खोजा जा सकता है। वैज्ञानिक अपने विज्ञान पर अहंकार करते है और अवैज्ञानिकता को विज्ञान मान लेते हैं। किसान अनपढ़ होता है परंतु उसके पास अनुभव गम्य ज्ञान होता है। उस अनुभव और जानकारी का लाभ उठाने का उपाय किया जाए। अंध आधुनिकता के कारण हमने प्राचीनता और प्रचिलत व्यवहारिक अनुभव गम्य ज्ञान को अंधविश्वास मान लिया है। अंधविश्वास से अंध अविश्वास ज्यादा खतरनाक होता है। स्थायी निदान खोजा जाए।"
इसके बाद नरहरि महतो, दुश्यंत सिंह ने अपनी बात रखी थी। इसी बीच सारण के सांसद लालू यादव बीच में बोल पड़े, 'महोदय, मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप पार्टीवाइज कितने आदमियों को बुलवाएंगे हमारे दल से एक माननीय सदस्य बोले हैं, हम तीन आदमी और हैं। क्या कोई सीमा है या नहीं।" इसके बाद गणेशराव नागोराव दूधगांवकर, अन्नु टंडन, रमाशंकर राजभर, जयाप्रदा, मदनलाल शर्मा, गणेश सिंह, जयश्रीबेन पटेल, अर्जुन राम मेघवाल ने भी प्राकृतिक आपदा से संबंधित अपनी बात रखी।
तमाम लोगों के द्वारा अपनी बात रखे जाने के बाद सुपौल के सांसद विश्व मोहन कुमार कुछ इन शब्दों में अपनी बात रखी थी, 'महोदय, मैं आपका आभारी हूँ कि आपने इतने ज्वलंत विषय पर विचार व्यक्त करने का मौका दिया।आज पूरे विश्व में एक ऐसा देश है जहां छ: छ: ऋतु होती हैं, जो किसी भी देश में नहीं हैं। ऐसा मौसम कहीं नहीं है, ऐसा माना जाता है। लेकिन विगत कुछ वर्षों से पर्यावरण का दोहन अधिक होने के चलते प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। समय पर प्रकृति धोखा दे जाती है, जिससे भारत में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। हम लोग बचपन से पढ़ते आ रहे हैं, यहां का 70-75 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है और वही देश की आर्थिक सम्पन्नता का पैमाना है।
आज मानसून के विमुख हो जाने के कारण कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि की चपेट में हम लोग पड़ जाते हैं। प्रकृति का जितना दोहन होगा उतना पृथ्वी पर उल्टा असर पड़ेगा। जैसा कि अभी सूखे से पड़ रहा है। औसत से बहुत ही कम वर्षा इस बार हुई है। बिहार में 246.5 वर्षा होनी चाहिए लेकिन अभी तक मात्र 118.21 वर्षा ही रिकार्ड की गई है। मेरे यहां सुपौल में जहां पर 280.2 प्रतिशत वर्षा अनुमानित थी लेकिन मात्र178.6 प्रतिशत ही वर्षा हुई है। इसमें 38.39 प्रतिशत का ह्मस हुआ है। बारिश नहीं होने से जहां 36 लाख धान की खेती निर्धारित थी वह 25-30 लाख पर ही संभव हो सकता है। दलहन, मक्का का भी यही हाल है। हतना ही नहीं इसका प्रतिकूल प्रभाव रबी की फसल पर भी अप्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा। खेत में नमी की कमी रहने के कारण उसका उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। इससे राज्य तथा देश की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ेगा।"
आज मानसून के विमुख हो जाने के कारण कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि की चपेट में हम लोग पड़ जाते हैं। प्रकृति का जितना दोहन होगा उतना पृथ्वी पर उल्टा असर पड़ेगा। जैसा कि अभी सूखे से पड़ रहा है। औसत से बहुत ही कम वर्षा इस बार हुई है। बिहार में 246.5 वर्षा होनी चाहिए लेकिन अभी तक मात्र 118.21 वर्षा ही रिकार्ड की गई है। मेरे यहां सुपौल में जहां पर 280.2 प्रतिशत वर्षा अनुमानित थी लेकिन मात्र178.6 प्रतिशत ही वर्षा हुई है। इसमें 38.39 प्रतिशत का ह्मस हुआ है। बारिश नहीं होने से जहां 36 लाख धान की खेती निर्धारित थी वह 25-30 लाख पर ही संभव हो सकता है। दलहन, मक्का का भी यही हाल है। हतना ही नहीं इसका प्रतिकूल प्रभाव रबी की फसल पर भी अप्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा। खेत में नमी की कमी रहने के कारण उसका उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। इससे राज्य तथा देश की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ेगा।"
आगे कहा, 'हम लोगों का इलाका भी सूखे से प्रभावित है। सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, पूर्णियां, किटहार, दरभंगा, मधुबनी और भी जिले हैं। यहां पर वैकिल्पक व्यवस्था नहर प्रणाली से सिंचाई होती थी, लेकिन पिछले वर्ष कुसहा तटबंध के टूटने से सारी नहर प्रणाली भी ध्वस्त हो गई, जिससे सिंचाई पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। क्योंकि 60 प्रतिशत खेती मानसून पर ही निर्भर रहता है लेकिन इस बार मानसून दगा दे गया। जमीन में पानी का स्तर भी घट गया जिससे वाटर लेबल भी नीचे चला गया। पीने के पानी एवं नलकूप जिससे सिंचाई व्यवस्था भी होती, दगा दे गया। मैं सरकार से मांग करता हूं कि बिहार के सभी जिलों को सुखाड़ क्षेत्र घोषित करें तथा किसानों के लिए एक ऐसा पैकेज की व्यवस्था करें जिससे उन्हें खाद, बीज, पानी की व्यवस्था सरलता से मुहैया हो सके।" उन्होंने आगे कहा कि दुख होता है परसों-तरसों जब सूखा क्षेत्र की लिस्ट जारी हुई थी उसमें बिहार का नाम नहीं था पता नहीं बिहार के साथ केन्द्र की सरकार क्यों सौतेला व्यवहार कर रहा है। कोसी में भयंकर बाढ़ के समय से मदद करने से हाथ खींच लिया और सुखाड़ में भी बिहार के साथ वही व्यवहार है। देश के सभी राज्य एक समान हैं चाहे वह कांग्रेस हो अथवा नॉन कांग्रेसी।
विश्व मोहन कुमार के बाद नरेंद्र सिंह तोमर, अरविंद कुमार शर्मा, टोकचोम मेनिया, आर.के. सिंह पटेल, हरीश चौधरी, गिरीडीह के रवींद्र कुमार पांडेय, बदरूद्दीन अजमल, पी.के. बीजू, प्रसन्ना कुमार पतसनी ने अपने-अपने इलाके का चर्चा की। इसके बाद जब केंद्रीय खाद्य मंत्री शरद पवार ने सांसदों के सवालों का जवाब देना शुरू किया था तो बीच में लालू यादव ने 'बिहार" को लेकर टोकाटाकी की। शरद पवार ने जब इशारे में कहा कि बिहार से कोई मेमोरेंडम नहीं आया है तो लालू यादव ने कहा बिहार से आया है और इसकी चर्चा आपने नहीं की तो शरद पवार ने साफ कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री की ओर से एक पत्र आया है, कोई मेमोरेंडम नहीं। इतने देर तक चुप्पी साधे रहने वाले मधेपुरा के मुख्यमंत्री शरद यादव डीजल पर राज्यों को सब्सिडी के मुद्दे पर मुंह खोला और बिहार को बिजली में सब्सिडी देने की मांग की। बहस में लालू यादव ने सोन इलाके में गेंहू और धान के पैदावार की चर्चा की।
ऐसे में सवाल यह है कि कोसी के इलाके की समस्या देश के सामने उठाने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ सुपौल के सांसद की है? क्या पूर्णिया, अररिया, कटिहार, मधेपुरा के प्रतिनिधि को अपने इलाके की चिंता नहीं है? आज तक मधेपुरा की जो भोलीभाली जनता लालू यादव और शरद यादव को आंख मूंदकर वोट देती थी और उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती रही, उनके वक्तव्य पर गौर करना आवश्यक है। सदन में इन दोनों नेताओं के रहते हुए यदि कोसी इलाके के बाढ़ और सुखाड़ की चर्चा न हो, इससे बड़ी त्रासदी कोसी क्षेत्र के लिए और क्या हो सकती है। कहने के लिए ये दोनों राष्ट्रीय नेता कहलाते हैं लेकिन जब घर में ही चूल्हा जलाने की लकड़ी उपलब्ध न करा सकें, तो किस बात के राष्ट्रीय नेता। ऐसे में जाहिर है कोसी की जनता को अपने चुने प्रतिनिधियों के चाल, चरित्र और चेहरे को समझना होगा, तभी विकास संभव है।
कोसीनामा-7: बाढ़ मामले पर हमारे सांसद
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 18, 2011
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Bahar ke netaon ko yahan kii mitti se lagaw nahi ho sakta hai.ye sirf yahan ke logon ko thagne aate hai.jururat hai is baar inko apne ghar ka rasta dikhane ki.jaise Lalu waise Sharad.
ReplyDeleteAll are bloody same...problem is we dont have option to reject the candidates....People dont have option of at leasst good candidate..and good people want to be out of politics...and No people remain good as he/she join this shit(politics)..आखिर करें तो क्या करें !!!!
ReplyDeleteसुमित जी ने बिल्कुल सही कहा जो लोग दूसरे जगह के है उन्हें यहाँ के कमियों से क्या मतलब उन्हें तो सिर्फ वोट लेकर आराम करना है.मगर मुझे तरस तो मधेपुरा की जनता पर आती है की यहाँ की जनता कितनी भोली या मुर्ख कहा जाय जो उस तरह के नेता को वोट देते है.
ReplyDeleteकहते है जो बहार का है उन्हें वोट न दे मगर जो हमारे घर के नेता है और जीत कर बैठे है वो कौन सा विकाश कर रहे है.मधेपुरा जिला के दो विधायक बिहार सर्कार के मंत्री है मगर सबसे दुःख की बात है की मधेपुरा की ही हालत पुरे बिहार में सबसे बुरी है.लानत है हम मधेपुरा के लोगों पर जो उस तरह के लोग को वोट देकर जीता रहे है.
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