चांदनी रात में कभी सुबकता हूँ,
सुबह शाम गमे लहू पीता हूँ,
न हो सका किसी का
सारी जिंदगी जिसके लिए
वफ़ा करता रहा,
उसने भी गद्दार कहा.
झूठ के कोहरे में मेरी वफ़ा का
भाष्कर कहीं छिप सा गया
मुझसे है पुरानी यारी
मेरी बदकिस्मती की,
कभी मैं जीतता हूँ,
तो कभी वो जीतता है.
इस हार जीत के खेल में
वफादार से गद्दार कहलाता हूँ.
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कभी सुबकता हूँ, कभी सिसकता हूँ...
उन्हें शायद पता नही
नकली सोने में कितनी चमक है
उस नक़ल के चकाचौंध में
खो गया कहीं सच्चा सोना
लेकिन है विश्वास मन में,
एक दिन ऐसा आएगा...
सत्य की आंधी आयेगी और
झूठ का कोहरा फट जाएगा
फिर भास्कर लालिमा लिए
क्षितिज पर लहलहाएगा...
लेकिन तब तक देर
बहुत देर हो जायेगी.....
अभाष आनन्द, व्याख्याता, मनोविज्ञान विभाग,
मधेपुरा कॉलेज, मधेपुरा.
मधेपुरा कॉलेज, मधेपुरा.
कभी सुबकता हूँ, कभी सिसकता हूँ...
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 03, 2011
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सत्य की आंधी आयेगी, और झूठ का कोहरा फट जाएगा....
ReplyDeleteवाह, बहुत खूब.
bahut achhi kavita hai.
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