विद्या ददाति विनयम.....अर्थात विद्या से विनय,विनय से पात्रता और पात्रता से धन और उससे सुख-समृद्धि आती है.यही वजह है कि बच्चों को पढाने की होड सी मची हुई है.इस होड़ में मासूम बच्चों के कंधे पर लगातार किताब के बस्ते का बोझ बढता जा रहा है.इस बोझ को धो रहे बच्चे बीमार हो रहे हैं जिससे सुख-समृद्धि की कल्पना पर ग्रहण लगने लगा है.बिडम्बना यह है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप और मानव संसाधन विभाग के दिशा-निर्देश के बावजूद किताबों की संख्यां में लगातार इजाफा होता जा रहा है.किताबों की भीड़ और कंधे पर बोझ से बचपन कुम्हला रहा है.
धीमा जहर है समस्या: देर ही सही धीमे जहर के रूप में इसका असर दीखता है.दबी जुबान से अभिभावक भी इसके नकारात्मक प्रभाव को स्वीकार करते हैं.अमूमन ५-८ किलो का वजन लगातार कंधे पर धोना कोई बच्चों का खेल नही,लेकिन यहाँ यह बच्चों का ही खेल है.जानकारों का मानना है कि लगभग ४०-५०% बच्चे बस्ते के बोझ से प्रभावित है.हड्डी रोग विशेषज्ञ डा० आर० एन० सिन्हा के अनुसार मासूमों में पीठ,कंधे,रीढ़ की
हड्डी एवं कमर में दर्द की शिकायत आम हो गयी है.कंधे पर लगातार बोझ की वजह से स्पाइनल कॉड में विरूपता आ सकती है.इससे 'स्कोलियोसिस' हो सकता है.इसका दूरगामी असर यह होता है कि बच्चों का वजन घटने लगता है और भूख-प्यास में कमी आने लगती है.बैग का स्वरुप भी परेशानी की मात्रा पर असर डालता है.
बेचारा मासूम क्या करे, व्यवस्थागत मजबूरी के बीच बोझ उठाना उनकी नियति बन चुकी है.इन मासूमों को इस बात का इल्म नही कि यह बस्ते का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें विकलांगता के कगार पर पहुंचा रहा है.शिक्षक चुप हैं क्योंकि स्कूल के इमेज का सवाल है.बची बात शिक्षा विभाग की,अधिकारियों की तो इसके लिए उनको फुर्सत नही है.यह समस्या कुकुरमुत्ते की तरह उग आये वैसे पब्लिक स्कूलों में अधिक है जहाँ सीबीएसई सिलेबस एवं 'टू बी एफिलिएटेड' जैसे बोर्ड टंगे होते हैं.दरअसल ऐसे स्कूलों पर सरकारी नियंत्रण नही होता है और शिक्षा पदाधिकारी की मिली भगत से यहाँ बच्चों एक अभिभावकों का शोषण बदस्तूर जारी रहता है.
(रिपोर्ट: पंकज भारतीय)
धीमा जहर है समस्या: देर ही सही धीमे जहर के रूप में इसका असर दीखता है.दबी जुबान से अभिभावक भी इसके नकारात्मक प्रभाव को स्वीकार करते हैं.अमूमन ५-८ किलो का वजन लगातार कंधे पर धोना कोई बच्चों का खेल नही,लेकिन यहाँ यह बच्चों का ही खेल है.जानकारों का मानना है कि लगभग ४०-५०% बच्चे बस्ते के बोझ से प्रभावित है.हड्डी रोग विशेषज्ञ डा० आर० एन० सिन्हा के अनुसार मासूमों में पीठ,कंधे,रीढ़ की
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बेचारा मासूम क्या करे, व्यवस्थागत मजबूरी के बीच बोझ उठाना उनकी नियति बन चुकी है.इन मासूमों को इस बात का इल्म नही कि यह बस्ते का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें विकलांगता के कगार पर पहुंचा रहा है.शिक्षक चुप हैं क्योंकि स्कूल के इमेज का सवाल है.बची बात शिक्षा विभाग की,अधिकारियों की तो इसके लिए उनको फुर्सत नही है.यह समस्या कुकुरमुत्ते की तरह उग आये वैसे पब्लिक स्कूलों में अधिक है जहाँ सीबीएसई सिलेबस एवं 'टू बी एफिलिएटेड' जैसे बोर्ड टंगे होते हैं.दरअसल ऐसे स्कूलों पर सरकारी नियंत्रण नही होता है और शिक्षा पदाधिकारी की मिली भगत से यहाँ बच्चों एक अभिभावकों का शोषण बदस्तूर जारी रहता है.
(रिपोर्ट: पंकज भारतीय)
बस्ते के बोझ से कुम्हला रहा बचपन
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 10, 2011
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