रविवार विशेष- कविता- मन


      मन
एक हूँ मैं और एक है मन
सीमित हूँ मैं,व्यापक है मन.
मेरी दुनिया बस है मुझ तक,
मन की दुनिया नील गगन तक.
इच्छाओं को पंख लगे हैं,
पहुँच नही पाती हूँ मन तक.
दबा हुआ है बोझ तले तन
पर उड़ने को आतुर है मन.
एक हूँ मैं और एक है मन.....
तन पर शासन हो सकता है,
मन पर क्या हो पाता है?
बंधन कितने ही तुम डालो
मन क्षण में उड़ जाता है.
दुःख में ही डूबे हो क्यों ना;
मन फिर भी मुस्काता है.
मन की समग्र वेदना पर
मन ही हावी हो जाता है.
हर पल,हर क्षण,सुबह-शाम
नित गीत सुहाने गाता है मन.
एक हूँ मैं और एक है मन.....
   --जूही शहाब,पुणे
रविवार विशेष- कविता- मन रविवार विशेष- कविता- मन Reviewed by Rakesh Singh on November 14, 2010 Rating: 5

12 comments:

  1. ek achhi kavita.Congratulation.sach me man ko baandha nahi ja sakta hai.likhte rahe.

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  2. Juhi ji aapki kavita sachmuch achhi hai.

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  3. aap sabhi ka bahut bahut dhanyavaad.

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  4. aap sabhi ka bahut bahut dhanyavaad.

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  5. आप सभी पाठकों का मधेपुरा टाइम्स की नई लेखिका(यहाँ कवियित्री)की हौसला अफजाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.कृपया स्वस्थ टिप्पणी करते रहें.हम आपके आभारी रहेंगे.
    राकेश सिंह
    प्रबंध संपादक,
    मधेपुरा टाइम्स

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  6. aapki bhavnaoon mein bahut sneh hai juhi g. aise kavitaayein likhte rahein,, iske liye ham rab se dua karte rahenge...

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  7. simply good nd healthy..keep writing such inovatve poems.

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