जनसत्ता संपादक के नाम "छिछोरा माध्यम" की तरफ़ से खुला पत्र !

प्रिय थानवी जी !  
आज फ़ेसबुक पर 'कल्पतरु एक्सप्रेस' द्वारा आयोजित 'मीडिया विमर्श' में आपके विचार को पढ़ा.जिसे अख़बार के फ़ीचर संपादक कुमार मुकुल ने शेयर किया है. अख़बार उप शीर्षक में छापता है- फ़ेसबुक एक छिछोरा माध्यम है, विश्वसनीय नहीं : ओम थानवी विमर्श के दौरान व्यक्त आपके सारे तर्क अच्छे लगे, लेकिन फ़ेसबुक के बारे में "छिछोरा माध्यम" वाला बयान आपके नाम खुला पत्र लिखने के लिए हमें उत्तेजित किया. वैसे इस बयान पर पता नहीं क्यों अभी भी हमें भरोसा नहीं हो रहा है...? सोच रहा हूँ कि इतने गम्भीर व्यक्ति और लोकप्रिय अख़बार के संपादक के मुँह से किस परिस्थितिगत परिवेश में इतनी हल्की बात निकली होगी.इस मनोविज्ञान-मनोदशा के पीछे कौन सी पीड़ा की पपड़ी ज़मीं होगी और क्यों ...? चूंकि थानवी जी से हमारा कभी कोई सीधा संवाद नहीं हुआ है. इसलिए इस बयान पर उनके प्रति एकतरफ़ा राय क़ायम करना पूर्वाग्रह होगा. बतौर जनसत्ता संपादक तो उन्हें सभी जानते हैं.हम भी...।

तर्क -1 फ़ेसबुक ही एक ऐसा "छिछोरा माध्यम" (आपके ही के शब्दों में) है,जहाँ तमाम छिछोरइ के बावजूद दो तरफ़ा संवाद (Two Way Communication ) सम्भव है और  हो रहा है.करोड़ों लोग इस मंच का बख़ूबी इस्तेमाल कर रहे हैं, इसमें एक नाम आप का भी शामिल है...। फ़ेसबुक पर पल-प्रतिफल आपका विचार-अभिव्यक्ति पढ़ने को मिलती है. खासकर आपके विदेश जाने और स्वदेश लौटने की जानकारी हम लोगों तक इसी "छिछोरे माध्यम" से मिलती है.अच्छा लगता है. फ़ेसबुक पर आपका आगमन इस बात का गवाह है कि कम से कम यह एक "छिछोरा माध्यम" ही है जहाँ आप जैसे शख़्सियत भी मौजूद हैं. यदि यह "छिछोरा माध्यम" होता तो आप जैसे प्रतिष्ठित संपादक, छिछोरेपन से अपने आपको क़ब का अलग कर लिया होता.कम से कम हमारा अकालन तो यहीं है...।
तर्क  -2 यदि आपके तर्क को सही मान भी लें तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया, जो आपकी नज़र में "छिछोरेपन" से अछूता है. इन माध्यमों में सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़रिश्ते हैं, छिछोरे नहीं...बावजूद इसके इस "छिछोरे माध्यम" का इस्तेमाल सभी मीडिया संस्थान और मीडिया कर्मी, अपवाद छोड़कर, कर रहे हैं. जनसत्ता सहित सभी अखबार, पत्रिकाएँ और टीवी चैनल्स सोशल मीडिया, ख़ासकर फ़ेसबुक, जिसे आप "छिछोरा माध्यम" कहते हैं, पर पल-प्रतिपल अपडेट के माध्यम से जुड़े हैं. बिना किसी आमंत्रण और अनौपचारिक मांग के. बहुसंख्यक मीडिया कर्मियों- संस्थाअों का फ़ेसबुक पर होना कहीं न कहीं "छिछोरा (पन) माध्यम" को बढ़ावा देना जान पड़ता है...।  कल को तो लोग यहीं इल्ज़ाम लगायेंगे कि कभी-कभी बहुमत का "छिछोरापन" भी खलता है.खासकर बौद्धिक जगत में...।
तर्क  3  फ़ेसबुक,जिसे आप "छिछोरा माध्यम" कहते हैं, इसके बारे में उनसे पूछिए,जिन्हें फ़ेसबुक ने पत्रकार-संपादक,कवि-कथाकार और लेखक आदि-इत्यादि के रूप में लोकतांत्रिक, स्वतंत्र और निरपेक्ष मंच प्रदान किया.  बिना किसी दाँव-पेंच, पैरवी.चापलूसी-चाटुकारिता,चम्चई और भेद-भाव के. इस माध्यम से जुड़ा व्यक्ति ख़ुद ख़बरों का संकलन, लेखन, संपादन, प्रकाशन और प्रसारण करता है. बिना किसी दबाव और स्वार्थ के.(यहाँ हम उनकी बात नहीं कर रहे हैं, जो इस माध्यम का इस्तेमाल किसी पार्टी विशेष के लिए कर रहे हैं.) ...।  यदि फ़ेसबुक पर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की तरह किसी एक या बहुतों का मालिकाना हक़ होता तो शायद यहाँ भी अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं होती. जो ग़ुलामी आज भारतीय मीडिया संस्थानों में देखने को मिल रही है.वह यहाँ भी मौजूद होती, संपूर्ण ख़ूबियों के साथ...।

तर्क 4 आप तो जानते ही हैं कि तमाम चाहने के बावजूद आप जनसत्ता में सभी को जगह देने में असमर्थ होंगे. यहीं हाल अन्य पत्र-पत्रिकाओं और टीवी मीडिया का भी है. किसी अख़बार-पत्रिका में कौन छपेगा. किस आधार पर छपेगा ? उसके लेखन की गुणवत्ता क्या होगी ? उसकी जाति-बिरादरी, समुदाय-सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा-बोली, सम्पर्क, पहुंच, पदवी और विचारधारा क्या होगी ?  इसका चुनाव कौन करता है ? चुनाव का आधार क्या होता है.? ज़ाहिर है, इन सब के लिए 'जनमत संग्रह' तो कराया नहीं जाता.यह निर्णय तो मालिक-संपादक और उसकी टीम ही करती रही है. इस मामले में निजी पसंद ना पसंद और संपर्क,कितना मायने रखता है और भविष्य में फ़ायदा पहुँचाता है.यह राज- रहस्य तो आपसे छुपा नहीं होगा...।

तर्क  5 ठीक यहीं हाल पुस्तक प्रकाशन में भी है. आज कैसी-कैसी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं. कैसे-कैसे लेखक पैदा हो रहे हैं या किये जा रहे हैं, कैसे-कैसे प्रकाशकों का जन्म हो रहा है. किन-किन शर्तों पर पुस्तकें प्रकाशित की जा रही हैं. लेखक, प्रकाशक, समीक्षक और आलोचक के बीच व्यक्तिगत और व्यावसायिक स्तर पर किस तरह का गठजोड़ बनता-बिगड़ता है, बतौर लेखक-संपादक आप अपरिचित तो नहीं ही होंगे. ऐसा हमारा मानना है...।
तर्क  6 फ़ेसबुक, जिसे आप "छिछोरा माध्यम" कहते हैं, उसमें क्रम संख्या 'चार-पाँच' जैसी ख़ूबियाँ नहीं हैं. हाँ ! ख़ामियाँ जरूर हैं. जैसे तमाम ख़ूबियों के बावजूद "चौथे खम्भे" में मौजूद हैं. छिछोरेपन और विश्वसनीयता का संकट यहाँ भी है और वहाँ भी. "छिछोरा माध्यम" वाली बात अधिक पंच की है. तमाम नियंत्रण के बावजूद, यदि आपके शब्दों में कहूँ तो प्रिंट-इलेक्ट्रानिक मीडिया में "छिछोरापन" (यह शब्द हमारा नहीं है, आपसे साभार लिया हूँ) अधिक है. आजादी के बाद किस- किस तरह के "छिछोरों" ने मीडिया में खुल्लमखुल्ला घुसपैठ की है. इसे आप भी दिल से क़ुबूल करेंगे. इसी छिछोरेपन की वजह से मौजूदा मीडिया संकट के क़रार पर खड़ा है.
तर्क  7 इस बात से तो आप भी सहमत होंगे कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में जैसे-जैसे पूँजी और पूंजीपतियों का निवेश बढ़ा है, उनकी दख़लंदाज़ी भी उसी रफ़्तार में बढ़ी है. मीडिया मालिकानों का राजसत्ता, देशी-विदेशी पूँजीपतियों और नौकरशाही का गठजोड़ न केवल बढ़ा है बल्कि दिनों-दिन मज़बूत भी हो रहा है. व्यावसायिक फैलाव और मुनाफ़े की निरंकुश मानसिकता के आगे आप जैसे बौद्धिक जनों का भी दम घूंटता होगा, इस पीड़ा की आहट हमें भी है...। असली "छिछोरापन" तो पूँजी और श्रम की लूट में है. यहां आपका मौन व्रत खटकता है.यह पेशे की मजबूरी भी हो सकती है.  जाहिर है, जिस डाल पर हम बैठे हैं, उसे हम काट नहीं सकते. सब काली दास नहीं बन सकता.
तर्क  8 मौलिक तौर पर देखा जाय तो "छिछोरापन" ख़त्म करने की ज़िम्मेवारी प्रिंट और  इलेक्ट्रानिक मीडिया की थी.सर्वे करा लीजिए,बहुसंख्यक लोगों का मत होगा,इन माध्यमों ने "छिछोरेपन" को न केवल संजीवनी दी है, बल्कि घर-घर पहुँचाया भी है. तमाम प्रचार-प्रसार और फैलाव के बावजूद मुख्यधारा का मीडिया देश की 75 फ़ीसदी आबादी के अभिव्यक्त का मंच नहीं बन पा रहा है... और  सोशल मीडिया ...? आँकड़े बताते हैं कि देश के  80-85 फ़ीसदी युवाओं के हाथ में मोबाइल है, ज़ाहिर है, इसमें से पचास फ़ीसदी से अधिक सोशल मीडिया से भी तो जुड़े होंगे...! जहाँ तमाम दावे के बावजूद मुख्यधारा का मीडिया नहीं पहुँचा है,वहीं सोशल मीडिया पहुँच तो रहा ही है...।
तर्क 9 फ़ेसबुक पर दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएँ, पिछड़े, अगड़े, आम-ख़ास. देशी-विदेशी, सब एक साथ बिना किसी भेद-भाव के अपने विचार को अभिव्यक्ति प्रदान कर सकते हैं. सबके लिए यह एक तरह का मंच है. लोकतांत्रिक बराबरी और  आज़ादी का मंच. विचार और  अभिव्यक्ति का मंच. मुख्यधारा का मीडिया, जिन ख़बरों को दबाता है, उन्हें सोशल मीडिया उठाता है. कई बार ऐसा हुआ है और  निरंतर जारी है...। जो लोग कुछ भी अख़बारों और  पत्रिकाओं में लिखकर छपवा लेते हैं या छप जाते हैं.जब उसी विषय-वस्तु को सोशल मीडिया पर लिखते हैं, यहाँ का पाठक वर्ग जब अपना फ़ीडबैक देता है तो, कई बार वह असहज हो जाते हैं, बहुत बार तारीफ़ भी मिलती है.  ज़ाहिर है,जो किसी ख़ास विचारधारा या कैंप में प्रशिक्षित हुए हैं, वो अपने गुरूमंत्र के आगे किसी और  के मंत्र को किसी भी क़िमत पर क़ुबूल नहीं करेंगे. यह शाश्वत सत्य है.आप समझ रहे होंगे, हमारा इशारा किसकी तरफ़ है.
तर्क  10 मुख्यधारा का मीडिया सामाजिक ज़िम्मेदारी, जवाबदेही, प्रतिबद्धता और  सरोकार का निर्वहन, उस तरह नहीं किया, जिसकी उम्मीद में पत्रकारिता को 'पेशे' की जगह 'मिशन' के उद्देश्य को आदर्श मानकर, इसके लिए नैतिक मूल्य, सिद्धांत और  सरोकार को गढ़ा गया था...। जैसे तमाम नियंत्रण के बावजूद मुख्यधारा का मीडिया सामाजिक सरोकार पर खरा नहीं उतर पा रहा है, ठीक वैसे ही सोशल मीडिया अनियंत्रित माध्यम होने और  कुछ ख़ामियों के बावजूद लोकतांत्रिक अभिव्यक्त की आवाज़ बुलंद किये हुए है...। आप और हम दोनों लोग फ़ेसबुक पर हैं. मुझे लगता है "छिछोरा माध्यम" वाले शब्द पर आपको एक बार पुनर्विचार करना चाहिए...।

हाँ ! इस बात से सहमत होने में कोई हर्ज नहीं है कि सोशल मीडिया अनियंत्रित माध्यम है. लेकिन जहाँ नियंत्रण है, वहाँ क्या हो रहा है...? हमारा ख़याल है, इस बात से आप भी सहमत होंगे...।
"छिछोरापन" और  विश्वसनीयता का संकट यहाँ भी है और  वहाँ भी ...।

नोट: हमारे लिखें पर यदि थानवी साहेब हमारे ख़िलाफ़ कोर्ट जायेंगे तो ज़मानत के लिए हमारे पास न पैसा है न वक़ील. न पहुँच. न पैरवी.हमारी ज़मानत भी, उन्हीं को करानी पड़ेगी होगी.
शुभकामनाओं सहित !


डॉ रमेश यादव
सहायक प्रोफ़ेसर
इग्नू, नई दिल्ली.

जनसत्ता संपादक के नाम "छिछोरा माध्यम" की तरफ़ से खुला पत्र ! जनसत्ता संपादक के नाम "छिछोरा माध्यम" की तरफ़ से खुला पत्र ! Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 09, 2013 Rating: 5

3 comments:

  1. behtarin tark dia h Sir apne. . .

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  2. फ़ेसबुक जैसे माध्यम को छिछोरा कहना अौर ख़ुद फ़ेसबुक पर छाये रखना यह विरोधाभास जनसंत्ता संपादक की ख़ूबी की बख़ूबी को प्रदर्शित करता है.
    फ़ेसबुक को हम लोकतांत्रिक बराबरी अौर आज़ादी का मंच मानते हैं.
    इसीलिए इसके पक्ष में आवाज़ उठाये हैं.
    चाक़ू सब्ज़ी काटने के काम आता है,लेकिन लोग उसका इस्तेमाल क़त्ल करने में प्रयोग करते हैं.
    जैसे मुख्यधारा का मीडिया अपने उद्देश्यों से भटक रहा है,ठीक वैसे ही फ़ेसबुक पर भी बहुतेरे लोग हैं.

    तमाम ख़ामियों अौर ख़राबियों के बावजूद जैसे प्रिंट अौर इलेक्ट्रानिक मीडिया की अालोचना करते हैं,वैसे ही लोग फ़ेसबुक की ख़ामियों की भी कर रहे हैं,इस वजह से "छिछोरा माध्यम" कहना तर्क संगत नहीं लगता.
    बहस को मंच देने के लिए मधेपुरा टाइम्स को शुक्रिया ...!

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  3. शुक्रिया पल्लवी !

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