प्रथम अवस्था अर्थात यतमान में चित्त की ओर उन्मुख होती है। साधना के इस प्रयास में नकारात्मक वृत्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास होता है। दूसरी अवस्था आती है- "व्यतिरेक" की। व्यतिरेक में साधक की वृत्तियां मन के चित्त से अहम तत्व की ओर उन्मुख मुख होती है।आंतरिक एवं बाह्य शत्रुओं पर आंशिक नियंत्रण हो जाता है तो कभी-कभी हार मान जाती है। किसी वृत्ति विशेष पर नियंत्रण खत्म हो जाता है तो किसी वृत्ति पर नियंत्रण नहीं होता। कुछ वृत्तियां एक समय में नियंत्रित होती है तो दूसरे समय में अनियंत्रित हो जाती है। अतः इस अवस्था में साधक को परम पुरुष की कृपा एवं प्रेरणा अनिवार्य हो जाती है साथ ही दृढ़ संकल्प की जरूरत भी पड़ती है। तीसरी अवस्था "एकेन्द्रीय में वृत्तियां मन के अहम तत्व की ओर उन्मुख हो जाती है । चौथी अवस्था ऐश्वर्या (अकल्ट पावर) की प्राप्ति होती है। ऐश्वर्य मिलने से उसका दुरुपयोग होने की संभावना रहती है और अगर उनका दुरुपयोग होता है तो वह अध्यात्म साधना में सबसे बड़े बाधक के रूप में उपस्थित होती है।
इस प्रकार एकेंद्रीय अवस्था में कुछ वृत्तियों एवं इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण या विजय प्राप्त हो जाता है।
चौथी अवस्था वशिकार में सभी वृत्तीय संपूर्ण रूप से महत्व से मूल परम सत्ता की ओर उन्मुख होती है और तब साधक की स्वभाव एवं स्वरूप में प्रतिष्ठा हो जाती है. सभी इंद्रियां पूर्ण रूप से नियंत्रित हो जाती हैं। मन आत्मा के पूर्ण नियंत्रण में रहता है। इसे ही भक्ति मनोविज्ञान में "गोपीभाव" या "कृष्णशरण" कहते हैं। इसमें कर्म ज्ञान एवं शक्ति का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है,। यह ज्ञान स्वरूप का भाव है।

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