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इस दौरान कहा गया कि श्रीमद्भागवत महापुराण पुराणों में श्रेष्ठ हैं। वह उस दर्पण की तरह है जो मनुष्य को उसकी आंतरिक सुंदरता का बोध करवाता है। भगवान की प्रकट और अप्रकट लीलाओं में छिपे हुए आध्यात्मिक रहस्यों को कथा प्रसंगों के माध्यम से उजागर किया। आज आठवें दिवस में सर्वश्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या भागवताचार्या साध्वी सुश्री कालिन्दी भारती जी ने बताया कि भगवान श्री कृष्ण के जीवन की दिव्य लीलाएँ भी प्रत्येक मनुष्य के लिए अध्यात्म का मार्ग ही इंगित करती है। कृष्ण तत्व से परिचित न होने के कारण ही संकुचित दृष्टिकोण वाले लोग प्रभु की बाल लीलाओं पर भी अशलीलता व संशय का कीचड़ उछाल देते है।
साध्वी जी ने भगवान का मथुरा गमन प्रसंग व कंस वध का सजीव चित्रण किया। सुश्री भारती जी ने सर्वप्रथम मथुरा गमन प्रसंग के द्वारा समझाया कि जब संशयग्रस्त अक्रूर जी श्री कृष्ण और बलराम जी को रथ पर बैठा कर मथुरा की ओर बढ़ रहे थे, तब मार्ग में वे नदी में स्नान करने के लिए रुके। उन्होंने नदी में स्नान करते हुए प्रभु की दिव्यता का दर्शन किया और मन के सभी संशयों से मुक्ति को प्राप्त किया। लोग यह समझते हैं कि उनको नदी में ही कृष्ण और बलराम जी का दर्शन हो गया। परंतु ऐसा नहीं है। भागवत महापुराण समाधि की उत्कृष्टतम अवस्था में लिखा गया ग्रंथ है फिर एक साधारण मानव इनमें छिपे गूढ़ अर्थ को अपनी साधारण सी बुद्धि में कैसे समझ सकता है? वास्तविकता में अक्रूर जी ने ध्यान की नदी में उतर कर प्रभु का दर्शन किया था।
कंस वध की कथा का वर्णन किया गया। कथा व्यास कालिंदी भारती ने कहा कि यहां कंस मन का प्रतीक है। आज भी वह प्रत्येक मानव को बुराईयों की ओर ले जा रहा है। इसका प्रमाण है, हमारा समाज आज समाज में बढ़ता हुआ पाप और भ्रष्टाचार मानव मन की देन है। प्रत्येक मानव अपने स्वार्थ की पूर्ति करना चाहता है फिर वो मार्ग पाप का ही क्यों न हो। आज इसी मन का नियंत्रित करने के लिए मानव कभी शिक्षाओं का सहारा लेता है तो कभी कानून की मोटी जंजीरों का। फिर भी वह अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पाया है। इसलिए संतों ने कहा है कि मन शिक्षा से नहीं दीक्षा से नियंत्रित होता है। दीक्षा जिसका अर्थ है दीखा देना जब तक मनुष्य वास्तविक धर्म से नहीं जुड़ जाता तब तक उसका मन परिवर्तित नहीं हो सकता है। मनुष्य की मन व बुद्धि के अनुसार धर्म की अनेकों परिभाषाएं है, पर ये परिभाषाएं भी मानव मन को बदलने में असमर्थ है। इसलिए आवश्यकता है श्रीकृष्ण जैसे गुरु की शरण में जाने की वहीं इस मथुरा रुपी देह में ईश्वर का प्रगटीकरण करते है और तभी मन रुपी कंस की समाप्ति होगी।
कथा वाचक कालिंदी भारती ने बताया कि दुष्ट कंस के वध हो जाने के पश्चात उग्रसेन को मथुरा के राज सिंहासन पर बैठाया गया और भगवान कृष्ण एवं बलराम ने उजैन स्थित सांदिपनी ऋषि के आश्रम में 64 दिनों में ही सम्पूर्ण शिक्षा को अर्जित कर लिया.
कथा में भगवान द्वारकाधीश ने अपने प्रिय उद्धव को ज्ञान से अधिक प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए एवं अपना संदेश सुनाने के लिए वृन्दावन भेजने को बहुत सुन्दर एवं रोचक तरीके से श्रोताओं को समझाया।
आधुनिक समाज में भी ध्यान करना एक status symbol बन गया है। Objective meditation , Transcendental meditation, Dancing meditation etc. कोई बल्ब पर दृष्टि एकाग्र करने को ध्यान कहता है तो कोई मोमबत्ती पर। कोई मन को कल्पना के द्वारा किसी सुंदर स्थान पर ले जाने को कहता है ध्यान की प्रक्रिया समझा रहा है तो कोई बाहरी नेत्रों को मूंद कर बैठ जाने को ध्यान कहता है। सर्वश्री आशुतोष महाराज जी कहते हैं - उपास्य के बिना उपासना कैसी। साध्य के बिना साधना कैसी!
ध्यान दो शब्दों का जोड़ है-- ध्येय + ध्याता। ध्याता हम हैं जो ध्यान करना चाहते हैं लेकिन हमारे पास ध्येय नहीं है जो स्वयं ईश्वर है Meditation is the direct conference with god. ध्येय की प्राप्ति करनी होगी। उस ईश्वर ध्येय को प्राप्त करने का केवल एक ही माध्यम है।
जिसके बारे में यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया-कः पंथा:
युधिष्ठिर ने कहा-
तर्कोप्रतिष्ठ श्रुतयोविभिन्नाः नेकोऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः।।
अर्थात् महापुरुषों के द्वारा बताए मार्ग पर चलना होगा यानि उस ध्येय के की प्राप्तिके लिए हमें भी किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण में जाना होगा। अंत में साध्वी जी ने ‘कंस वध’ प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा कि जब-जब भी धरा पर आसुरी प्रवृतियाँ हाहाकार मचाती हैं, तब-तब प्रभु अवतार धरण करते हैं। स्वयं प्रभु श्री कृष्ण उद्धघोष करते हैं:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।।
द्वापर काल में जब कंस के अत्याचारों से धरती त्राहिमाम कर उठी तो धर्म की स्थापना और भक्तो के कल्याण के लिए परमात्मा का श्रीकृष्ण के रूप में अवतरण हुआ। इसी प्रकार वह ईश्वर हर युग, हर काल में साकार रूप धारण कर व्यक्ति के भीतर ईश्वर को प्रकट कर देता है। भीतर की आसुरी प्रवृत्तियों का नाश कर परम सुख और आनन्द का बोध करा देता है और तब अधर्म पर धर्म की विजय का शंखनाद गुंजायमान हो उठता है।
इसके अतिरिक्त विदुषी जी ने अपने विचारों में संस्थान के बारे में बताते हुए कहा कि संस्थान आज सामाजिक चेतना व जन जाग्रति हेतु आध्यात्मिकता का प्रचार व प्रसार कर रही है।
उमड़ी श्रद्धालुओं की भीड़ से भागवत कथा पंडाल छोटा पड़ा श्रद्धालुओं के बैठने के लिए जगह कम पड़ गई। पूरा गोल बाजार खचाखच भीड़ से पटा रहा.
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युग कोई भी हो अत्याचारों का अंत सृजनहार किसी न किसी रूप में करते हैं: आठवें दिन कंस वध का प्रसंग
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
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December 22, 2018
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