
बिहार के सहरसा जिले का आरण गाँव अचानक से उसके बाद चर्चा में आ गया जब राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस पर 15 अगस्त 2016 को इस राष्ट्रीय पक्षी ‘मोर’ की खबर सबसे पहले मधेपुरा टाइम्स पर छपी.
आरण
को अब सरकार अभ्यारण्य बनाने में जुट गई है. गाँव में मोरों पर फिल्म की शूटिंग भी
होने लगी है. वृक्षारोपण का काम भी यहाँ तेजी से हो रहा है तो सरकार की ओर से अधिकारियों
का दौरा भी इस गाँव में शुरू हो चुका है. सहरसा डीएम विनोद सिंह गुन्जियाल पहले भी आरण
भ्रमण कर चुके हैं और आज भी डीएम, एसडीओ, बीडीओ, भागलपुर से वन विभाग के अधिकारी समेत अधिकारियों का हुजूम आरण पहुंचा. अब सम्भावना इस बात की भी है कि निश्चय यात्रा के दौरान 17 दिसंबर
को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी यहाँ दौरा हो जाय. इन सबके बीच हम आपको फिर
से आरण ले चलते हैं ताकि यहाँ के मोरों से जुड़े कई अनछुए पहलू को पाठक समेत
प्रशासन भी जान सके ताकि यहाँ होने वाले ‘मोर अभ्यारण्य’ उम्दा और सफल बन सके.
ट्रेन में दो मोरों के ‘चाइल्ड’ टिकट कटा
कर पंजाब से लाये गए थे दो मोर: आरण के अभ्यारण्य
बनने के पीछे के पीछे के सबसे महत्वपूर्ण सख्स करीब 78 साल के बुजुर्ग अभिनन्दन
यादव उर्फ़ कारी झा हमें पूरी कहानी
बताते हैं (देखें खबर के साथ वाली वीडियो).
स्मरण शक्ति पर जोर डालते कारी झा कहते हैं कि उन्होंने वर्ष 1991 में यहाँ से एक
साधू बैरसु यादव और सुदीप ठाकुर को खर्च देकर पंजाब भेजा था. हिदायत के अनुसार दोनों व्यक्ति पंजाब
से दो छोटे मोर को लेकर ट्रेन से चले तो रास्ते में टीटीई तंग न
करे, इसके लिए दोनों मोरों
के दो ‘चाइल्ड’ टिकट लेकर उन्हें डब्बे में सीट पर रखा था. उन्होंने ये भी सोच रखा
था कि किसी को ये नहीं बताएँगे कि ये राष्ट्रीय पक्षी हैं, बल्कि कुछ और बता
देंगे. उस यात्रा का एक दुखद पहलू ये भी रहा था कि गाँव से गया साधू रास्ते में ही
कहीं छूट गया और आजतक गाँव नहीं लौटा. आरण में अभिनन्दन यादव ने दोनों मोरों को
पाला और ये महज संयोग ही था कि वे नर-मादा निकले. पहली बार मोरनी ने पास के झाड़ी
में छ: अंडे दिए. अभिनन्दन यादव याद करते हैं कि उन्होंने अण्डों को उठाकर घर
में रखा ताकि अंडे सुरक्षित ढंग से सेवे जा सकें, पर मोरनी घर नहीं आई थी. फिर इन्होने
अण्डों को उसी झाड़ी में रख दिया. पांच बच्चे मोरों को मोरनी के पीछे-पीछे फुदकना
आज भी गाँव वालों को याद है. संख्यां बढ़ी और छ: से अब छ: सौ हो गए तो उन्होंने
जंगल और झाड़ को अपना घर बना लिया है.



ग्रामीणों के रहन-सहन ने आरण को बनाया मोरों के लिए उपयुक्त: सहरसा जिले से महज छ: किलोमीटर की दूरी पर बसे गाँव के बारे में बताया जाता है कि यहाँ शुरू से जंगल बहुत अधिक थे और लोग अगल-बगल के गाँव में रहते थे. गाँव के नाम के बारे में भी पूरी सम्भावना है कि इसे पूर्व में ‘अरण्य’ (जंगल का पर्यायवाची) कहा जाता था जो कालांतर में आरण नाम से जाना जाने लगा. गाँव के

अब इनके मरने की संख्यां में भी हो रही वृद्धि:
ग्रामीण कृष्ण कुमार कुंदन बताते हैं कि इनकी संख्यां अभी 500 के आसपास होगी पर ये
और भी अधिक होते यदि खेतों में डाले गए कीटनाशक
इनकी मौतों का कारण नहीं बनते. वे
कहते हैं कि प्रशासन को चाहिए कि यहाँ जैविक खेती को विकसित कर दें ताकि अभ्यारण्य
बनने की दिशा में किये जाने वाले प्रयास को दुगुनी सफलता मिल सके. इसके अलावे
पक्षी विशेषज्ञों को भी इनकी आबादी और सुरक्षा बढ़ाने के लिए कदम उठाने होंगे.

जो भी हो, यदि आरण मोरों का अभ्यारण्य बन
गया तो जाहिर है कोसी के इस क्षेत्र का विकास भी दुगुनी गति से होगा और कहा जा सकता
है कि ये खूबसूरत राष्ट्रीय पक्षी यहाँ के लोगों के लिए खुशियों की सौगात लेकर आये
हैं. लोग खुश हैं और चाहते हैं कि आरण की चर्चा हर तरफ हो.
आरण के मोरों को देखें इस वीडियो [ये दिल मांगे 'मोर'] में, यहाँ क्लिक करें.
ये दिल मांगे ‘मोर’: संयोग ही था कि ‘चाइल्ड’ टिकट पर आरण लाए दो मोर नर-मादा थे
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
December 09, 2016
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