‘पैराशूट कैंडिडेट’ की फिर बल्ले-बल्ले: चुनाव में टिकटों की खरीद-बिक्री है लोकतंत्र का घिनौना चेहरा

विधानसभा चुनाव 2015 में अधिकाँश पार्टियों ने जैसे ही अपने उम्मीदवारों के चेहरे सामने किए, बहुत से लोगों की प्रतिक्रियाएं विपरीत रही. पूरे बिहार के कई उम्मीदवारों के बारे में लोगों के बीच ये चर्चा आम हो गई कि इस उम्मीदवार ने टिकट खरीद लिया है. कई जगह तो टिकट न मिलने वाले कुछ नेताओं ने भी टिकट की खरीद-बिक्री का आरोप खुलकर लगाया.
    कई एंगल से देखने पर आरोप में सच्चाई भी प्रतीत होती है. बिहार भर में कई मामलों में पुराने कार्यकर्ताओं को कुछ भी हासिल नहीं हो सका है और पार्टी में ज्वाईन किये अवसरवादिता की राजनीति करने वाले कई नए नेताओं ने बाजी मार ली है. पार्टी नेतृत्व के अधिकार क्षेत्र में है वो किसी को भी टिकट दे दे. पर नैतिकता भी कोई चीज होनी चाहिए. या यूं कहें अधिकाँश बड़े नेताओं में नैतिकता होती ही नहीं है. यदि उनमें नैतिकता होती तो शायद वे ‘बड़े’ न कहलाते.
    पुराने कार्यकर्ताओं पर एक नजर डालिए. एक निरीह प्राणी सा वे इस बात का इन्तजार करते रहते हैं कि शायद कभी पार्टी नेतृत्व का दिल उनके लिए भी पसीजे. पर बिहार विधानसभा में भी ‘पैराशूट कैंडिडेट’ की बल्ले-बल्ले दिख रही है.
    यदि सचमुच टिकट के लिए पार्टी नेतृत्व लाखों से करोड़ों रूपये वसूल कर रही है तो ये लोकतंत्र का एक बड़ा घिनौना चेहरा है. जाहिर से बात है लेने वाले को चुनाव जीतने वालों को ‘पैसा-वसूल’ की पूरी छूट देनी होगी ताकि वे अपनी लागत सूद समेत वसूल कर सकें.
    हर स्थिति में जनता ही ठगी जा रही है. लोकतंत्र यदि इसे ही कहते हैं तो शायद वेश्यावृत्ति और लोकतंत्र में मामूली सा ही फर्क है. पिछले दिनों एक अन्य मामले की पेशी पर आए मंडल कारा सहरसा में बंद पूर्व सांसद आनंद मोहन से जब हमने वर्तमान राजनीति में गिरावट पर चर्चा की तो उनका कहना था कि पहले दल-बदल एक बड़ी समस्या थी और लोकतंत्र को परेशान करने वाला था जबकि आज चुनाव में टिकटों की खरीद-बिक्री ने पूरी राजनीति को ही गन्दा कर दिया है. समर्पित नेता-कार्यकर्ता पैसे वालों के सामने पिछड़ रहे हैं और जनता के पास विकल्प भी कम ही बचे हैं.
    मतलब साफ़ है, हमें चुनना तो चाहिए किसी स्वच्छ छवि के ऐसे उम्मीदवार को जिसपर हम आगे विकास का भरोसा कर सकें. पर सिर्फ दस के सोचने से क्या होगा? बहुतों के लिए चुनावी मुद्दे या बातें बहुत ही छोटी चीजें हैं, पार्टी और जाति महत्वपूर्ण होते हैं, चाहे उम्मीदवार कैसा भी क्यों न हो? . शायद इसलिए बिहार में यह बात चर्चित है कि ‘न मुद्दे पर, न बात पर, मुहर लगेगी जात पर’.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
‘पैराशूट कैंडिडेट’ की फिर बल्ले-बल्ले: चुनाव में टिकटों की खरीद-बिक्री है लोकतंत्र का घिनौना चेहरा ‘पैराशूट कैंडिडेट’ की फिर बल्ले-बल्ले: चुनाव में टिकटों की खरीद-बिक्री है लोकतंत्र का घिनौना चेहरा Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on September 23, 2015 Rating: 5

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