‘यदि सचमुच डॉक्टर भगवान का रूप होते हैं तो यकीन मानिए डॉ० अर्जुन प्रसाद सिंह में भगवान का रूप दिखता था’ (भाग-1)
ये बात अक्सर लोगों को कहते सुना जा सकता है कि
डाक्टर भगवान का रूप होते हैं. हालाँकि ये बात पहले अधिक सुनी जाती थी और वर्तमान
में इस पेशे में आई गिरावट की वजह से अब अधिकांश डॉक्टरों के बारे में लोगों की
मान्यताएं बदलने लगी है.
पर जब
भी मधेपुरा और कोसी के डॉक्टरों का इतिहास लिखा जाएगा तो उनमें यदि भगवान का दर्जा
पाने के लायक कुछ डॉक्टरों को रखा जाय तो इस इलाके के पहले एमबीबीएस डा० अर्जुन
प्रसाद सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा. भारत की आजादी के साल से मधेपुरा जिले
के बिहारीगंज थाना के मोहनपुर निवासी अर्जुन प्रसाद सिंह ने जिस तरह मधेपुरा और इस
इलाके की सेवा करनी शुरू की, आज वो मिसाल के रूप में कायम है और लगातार 38 वर्षों
तक बिना फीस के लाखों लोगों को स्वस्थ करने के उनके रिकॉर्ड को तोड़ना आज के अर्थ
युग में किसी और डॉक्टर के वश की बात नहीं लगती. बीमार को देखकर ही सही डायग्नोसिस
कर कम से कम दवाइयों में उन्हें ठीक कर देने की महारथ शायद बिहार में पटना के डा०
शिव नारायण सिंह के बाद डा० अर्जुन प्रसाद सिंह को ही हासिल था.

वो 20
मार्च 1920 का दिन था जब मधेपुरा जिले के बिहारीगंज के मोहनपुर गाँव में स्वतंत्रता
सेनानी अम्बिका प्रसाद सिंह और सत्यभामा देवी के घर में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति
हुई थी. पिता ने महाभारत के विजेता और लक्ष्य भेदने में माहिर अर्जुन के नाम पर
अपने बेटे का नाम भी अर्जुन रखा. और नाम के ही अनुरूप पढ़ाई में अत्यंत मेधावी रहे
अर्जुन प्रसाद सिंह ने वर्ष 1937 में मधेपुरा के शिरीष इंस्टीट्यूट (अब जेनरल हाई
स्कूल) से द्वितीय श्रेणी से मैट्रिक की परीक्षा पास की. बता दें कि ये वो समय था
जब मैट्रिक पास करना ही एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी. बताते हैं कि उस समय बिहार
बोर्ड जैसी संस्था नहीं थी और बिहार में मैट्रिक की परीक्षा पटना विश्वविद्यालय के
द्वारा संचालित किया जाता था. इसके बाद इन्होने आई.एस-सी. की परीक्षा तत्कालीन
टी.एन.जे. (तेज नारायण जुबिली) कॉलेज (अब टी.एन.बी. कॉलेज) भागलपुर से वर्ष 1939
में पास की और फिर प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज, पटना (अब पीएमसीएच) से एमबीबीएस
की पढ़ाई पूरी की.
ये वो
समय था जब एक तरफ देश गुलामी की जंजीरों में जकडा था और दूसरी तरफ कोसी चिकित्सकों
के बड़े अभाव को झेल रहा था. और ऐसे में सरकारी नौकरी न कर समाजसेवा करने का इनका
फैसला और मधेपुरा में डा० अर्जुन प्रसाद सिंह का आना मानो रेगिस्तान में पानी की
बूँद के समान साबित हुआ. वर्ष 1947 से बिहारीगंज में भले ही इन्होनें डॉक्टर के
रूप में अपनी प्रैक्टिस शुरू की हो, पर कहते हैं कि चंद महीने के बाद ही मधेपुरा
के कई गणमान्य लोग डा० अर्जुन प्रसाद सिंह के पिता अम्बिका प्रसाद सिंह के पास
पहुंचे और उनसे अनुरोध कर डा० अर्जुन प्रसाद सिंह को मधेपुरा में प्रैक्टिस करने
के लिए मना लिया, चूंकि मधेपुरा में उस समय चिकित्सकों का घोर अभाव था और किसी
छोटी बीमारी में भी व्यक्ति की मौत एक सामान्य सी बात हो चली थी. ((क्रमश:)
गाँव-गांव
जाकर मुफ्त इलाज करने वाले इस महान चिकित्सक के लिए वर्ष 1947 रहा बदलाव का वर्ष,
कैसे? पढ़िए अगले भाग में. मधेपुरा टाइम्स पर जारी है, ‘यदि सचमुच डॉक्टर भगवान का रूप
होते हैं तो यकीन मानिए अर्जुन प्रसाद सिंह में भगवान का रूप दिखता था’..........
(वि० सं०)
‘यदि सचमुच डॉक्टर भगवान का रूप होते हैं तो यकीन मानिए डॉ० अर्जुन प्रसाद सिंह में भगवान का रूप दिखता था’ (भाग-1)
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 08, 2014
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