राजसत्ता, पूँजीवाद और कारपोरेट मीडिया के सपनों का सच !


 'फुकरे' (Fukrey) फ़िल्म में छोटा भाई सपना देखता है.सुबह बड़े भाई को बताता है.बड़ा भाई उसके सपने के बिंब को जोड़कर अंक निकालता है.उसके आधार पर लाटरी ख़रीदता है और जीत जाता है.लेकिन एक दिन उसके ग़लत सपने की वजह से सभी को जेल की यात्रा करनी पड़ती है.
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'फुकरे' से मिलती-जुलती एक फ़िल्म की पटकथा यूपी में शोभन सरकार उर्फ़ परमहंस विरक्तानंद और केन्द्रीय कृषि खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री चरण दास महंत ने मिलकर लिखी.शोभन सरकार ने सपना देखा.महंत ने अंक जोड़ा. हाईकमान से बताया.
जैसे बिना किसी सत्य की जाँच किये 'फुकरे' फिल्म की ' रीचा चड्ढा, लाटरी के लिए लाख रूपये की दाँव खेलती है, ठीक वैसे ही सरकार ने बिना किसी साक्ष्य के, शोभन सरकार के सपने के आधार पर उन्नाव के डौंडिया खेड़ा गाँव में 1000 टन सोने की खुदाई के लिए दाँव चली है.
*** राजसत्ता, पूँजीवाद और मीडिया के साथ मिलकर, समाज को जो सपने दिखा रहा है, उसका फ़ायदा
सिर्फ़ इन्हीं तीनों को होना है,समाज को नहीं. समाज तो हमेशा से तमाशबीन रहा है, जैसा डौंडिया खेड़ा में दिख रहा है. 'तीन साझे, गोविन्द बाझे' की कहावत को राजसत्ता, पूँजीवाद और मीडिया कैसे हक़ीक़त में बदल रहा है, यहाँ देखिए.
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दुनिया के लिए 21 सदी ज्ञान-विज्ञान,तकनीक,प्रबंधन और सूचना प्रौद्योगिकी की सदी बन कर उभरी है. साम्राज्यवादी देशों की पैदाइश लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइज़ेशन (LPG) को विकासशील देश अपने सिर पर ढो रहे हैं.  भारत भी इसे उचककर कंधा दिया है. बावजूद इसके यह देश इस सदी में भी अंध आस्था-विश्वास, पाखंड, पंडावाद, पुरोहितवाद, धर्मवाद, मंत्र-तंत्रवाद, भूत-प्रेतवाद, जंतर, मंतरवाद, कंठी-मालावाद,  रक्षा-धागा,  ताबीज़वाद, भाग्य,झइती, सोखइतीवाद, पूजा-पाठ, हवन-दान, बलि, पाप-पुण्य, पुनर्जन्म, जनेऊ, संयासी, पुजारी, साधु, संत-महंत, महात्मा, अघोरी, ज्योतिष और भगवान के लिए भूखा हुआ है... यह भूख लोगों के तन से नहीं उपजी हुई है, बल्कि इस भूख को सदियों से ब्राह्मणवाद ने बरक़रार रखा है. इसे कभी ख़त्म नहीं होने दिया. लोगों को लगता रहा कि विज्ञान और तकनीक के आने से सारे पाखंडवाद का खंड-खंड खात्मा हो जायेगा, लेकिन पूँजीवाद ने सबसे पहले आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और सूचना प्रौद्योगिकी को अपने क़ब्ज़े में ले लिया और ब्राह्मणवाद को आधुनिक तकनीक और जनसंचार के करेजे में जिन्दा किया. साम्राज्यवादी विस्तार के लिए पूँजी चाहिए थी. बिना मुनाफा कमाये यह संभव न था. दुनिया का सबसे अधिक उपभोक्ता उसे भारत में नज़र आये, ज़ाहिर है, आस्था के बाजार को सिर्फ़ हवा देने की ज़रूरत थी, सो पूँजीवाद ने दीर्घक़ालीन रणनीति अपनायी, भगवान को बेचने का. यह बाज़ार का ही जादू रहा कि 14 वीं सदी का दिल-दिमाग़ और दृष्टि लिए शरीर पर आधुनिक कहे जाने वाले लिबास फबने लगे. लिंग-भेद और पित्तसत्तात्मक व्यवस्था के पोषण में आकंठ तक डूबी पीढ़ी भी इसे आँख मूँद कर अपनाने लगी. गले और कलाइयों में रंग-बिरंगे बाबाओं, देवी-देवताओं और भगवान के नाम का कंठी, गंडा, माला, रक्षा, धागा, अंगुठी, कड़ा और लॉकेट बँधने, सजने और फबने लगे. पुरोहितवाद के युग की वापसी हुई. मठों-मंदिरों, मस्जिदों,  दरगाहों, चर्चों और गुरूद्वारों के पंडे-पुजारी, लोकतंत्र और उसके रहनुमाओं की भविष्य बांचने लगे. जिनके कंधों पर देश और समाज को प्रगति के रास्ते पर ले जाने की ज़िम्मेवारी थी. ज्ञान-विज्ञान के विकास का लक्ष्य पूरा करना था, वो संतों-महंतो, पंडों-पुजारियों के ड्योढ़ी पर मत्था टेकने लगे. कितना अजीब था, जिन्हें ख़ुद के वर्तमान और भविष्य पर भरोसा  नहीं था, वो समाज का वर्तमान और भविष्य बनाने और सुधारने का टेंडर भरने लगे और ठेका लेने लगे.
जो लोग अपने बेटे-बेटियों को डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक,  प्रबंधक, बिज़नेसमैन और हर्षद मेहता बनाने के लिए पैसा, पैरवी, पावर और जुगाड़ के लिए हर तरह का समझौता और षड्यंत्र करने के लिए तैयार बैठे थे, वहीं लोग सूचना प्रौद्योगिकी यानी टीवी और प्रिंट मीडिया का इस्तेमाल आस्था और भगवान को बेचने में सबसे अगली पंक्ति में खड़े नज़र आ रहे हैं. किसी भी मशीन, तकनीक और माध्यम का अपना कोई वर्ग चरित्र और विचारधारा नहीं होता.जो लोग इसको संचालित करते हैं, वो किसी न किसी विचारधारा के पोषक और संरक्षक जरूर होते हैं. उनका वर्ग चरित्र ही उनकी भूमिका तय करता है. हिंसा या अहिंसावादी, क्रांतिकारी या क्रांति विरोधी, प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील आदमी होता है, मशीन या तकनीक नहीं. इस बात को ठीक वैसे ही समझा जाय, जैसे चाक़ू का निर्माण सब्ज़ी-फल काटने के लिए किया गया है, कि हत्या-आत्महत्या के लिए. यह प्रयोगकर्ता पर निर्भर है. इस मामले में जैसे आदमी दोषी ठहराया जाता है, चाक़ू नहीं, ठीक वैसे ही संचार माध्यमों का इस्तेमाल और संचालन करने वाले दोषी हैं, तकनीक या माध्यम नहीं...
टेलीविजन मीडिया में भूत-प्रेत, ओझा-सोखा, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष विद्या, संत, महंत, बाबा, देवी-देवता और भगवान का रहस्य और शक्ति को दिखाने के पीछे कौन सी मजबूरी है. यह किसको और किस लिए बनाया-दिखाया जा रहा है. इसके खात्मा के लिए विज्ञान और उसके प्रसार का सहारा क्यों नहीं लिया जाता. सर्वाधिक सीरियल धर्म, अंध-आस्था, प्रेत योनि, आत्मा-परमात्मा, मोक्ष और पुनर्जन्म पर ही क्यों बनाये जा रहे हैं...?
क्योंकि मान लिया गया है कि TRP इसी से बढ़ती है.इसी की बदौलत विज्ञापन मिलता है.कमाई होती है,मुनाफ़ा बढ़ता है और आर्थिक विस्तार होता है. जब टीवी पर यहीं दिखाया जायेगा, ज़ाहिर है लोग देखेंगे. दर्शकों को नया विकल्प नहीं दिया जा रहा है, इसलिए परिवर्तन भी नहीं दिख रहा है.
आज तक किसी भी पूँजीपति को अपने बेटे-बेटी को साधु-सन्यासी, संत-महंत, पुजारी और ज्योतिषी बनाने के लिए किसी कालेज में दाख़िला दिलाते नहीं सुना होगा. हाँ हर्षद मेहता जैसी विद्या का प्रयोग और कांड करते हुए जरूर सुना होगा. यह बात मीडिया मालिकानों और पत्रकारिता संस्थानों में ऊँचे और निर्णायक पदों पर बैठे लोगों पर भी लागू होती है.
"राम-नाम जपना, पराया माल अपना" की नीति और नींव पर टीका ब्रह्मणवाद किसके लिए ख़तरा है. जाहिर है, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए. राजसत्ता और प्रभुत्व वर्ग चाहता है कि यह जमात इसी में उलझी रहे, उसकी लूट-खसोट पर इसका ध्यान न जाये, जो मिले उसे कृपा और भाग्य समझकर चुपचाप रख ले.

बाज़ार असत्य को सत्य का ख़्वाब बनाकर बेच रहा है. धर्म और कर्मकांड उसकी आमदनी का ज़रिया है. क़र्ज़ लेकर ख़्वाब ख़रीदने के लिए लोगों के बीच विज्ञापन प्रसारित किये जा रहे हैं. लोग हैं कि ख़रीदने के लिए एक पर एक गिरे-भहराये जा रहे हैं. एक बड़ी जमात है, जो बिना श्रम किये सदियों से फल-फूल रही है. यह मुफ्तखोरी की आदत से इस क़दर लबरेज़ है कि सारे कुकर्म के बावजूद, धर्म और कर्मकांड को ही अपना असली कर्म मानती है. अंध-आस्था और कर्मकांड के विरोध को भगवान के कार्य में रूकावट मानती है. मीडिया ने भ्रमजाल की इस कमाई का पर्दाफ़ाश करने की बजाय, इसका प्रचार-प्रसार करने में अधिक दिलचस्पी दिखायी है. जिस धर्म में भक्तों के लिए दया नहीं, इंसान के लिए इंसानियत नहीं, उस धर्म-कर्म को संजीवनी की तरह लोगों को पिलाया जा रहा है.
आज जिस सपने को भारतीय भू-वैज्ञानिकों को देखने की ज़रूरत है. सरकारों और लोकतंत्र के रहनुमाओं को देखने की ज़रूरत है, उस सपने को शोभन सरकार उर्फ़ परमहंस विरक्तानंद जैसे लोग देख रहे हैं. सरकार सपने को साक्ष्य मानकर खुदाई करा रही है.
 इस सपने को टेलीविजन और प्रिंट मीडिया बिना किसी वाजिब तहक़ीक़ात को शहर, क़स्बों, गाँवों, घरों और लोगों के बेडरूम तक पहुँचा रहा है. विदेशी मीडिया इसे 21वीं सदी का 'अंतरराष्ट्रीय मज़ाक़' कह कर चटकारे ले रहा है.
           मज़ाक़ क्यों उड़े. मीडिया ने बाबाओं को इस क़दर पेश किया है कि बहुसंख्यक लोग अस्पतालों से पहले बाबाओं के श्रमों में अपने कष्टों का निवारण तलाश रहे हैं. वहां बांझपन के इलाज से लगायत सेक्स की संतुष्टि की संजीवनी तक दिये जा रहे हैं. जिसे दवा की ज़रूरत है, उसे दुवों पर जिंदा रखने का चमत्कार दिखाया जा रहे हैं. चटनी-समोसे से हर समस्या का इलाज करने वाला 'निर्मल दरबार' टीवी मीडिया ने दी लाइव दिखाया था.  कम से कम पत्रकारिता में इतने वैज्ञानिक नीति निर्माता तो रहे ही होंगे कि इस कार्यक्रम का मौलिक सच बता सकें,लेकिन सा नहीं किया गया. जाहिर है, TRP बढ़ रही थी, पूँजी आ रही थी.       यह सर्वविदित है कि जिन मीडिया संस्थानों में जिनकी पूँजी लगी है, वह बड़ी पूँजी को अपनी तरफ़ खींचकर अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना चाहता है. मौजूदा दौर में 80 फ़ीसदी मीडिया संस्थानों पर कारपोरेट घरानों का क़ब्ज़ा है. इनका देश-विदेश में पूँजी लगी हुई है.
       'ब्लैक मनी को ह्वाइट' करने का धंधा बड़े पैमाने पर चल रहा है. दशकों से राजसत्ता में सुख भोग रहे लोगों का 'शेयर' भी मीडिया में लगा हुआ है. डालर, रूपये को निरंतर पटक रहा है, चैनल वाले घाटा दिखाकर बड़े पैमाने पर कर्मियों की छँटनी कर रहे हैं, फिर भी नये चैनलों का लाइसेंस लेने के लिए लाइन लगी हुई है. यदि चैनलों का कारोबार घाटे में जा रहा है, फिर नये चैनल्स का तर्क समझ से परे लगता है.
       इसको से भी समझ सकते हैं कि जितनी संख्या में सरकार कल-कारख़ाने नहीं खोल पायी, उससे कई गुना अधिक मीडिया संस्थान खोले जा रहे हैं. पूँजी के इस रहस्य को आज बताने के लगाए 'संजय' तो नहीं हैं, लेकिन पूँजी के इस खेल को 'भीष्म' की तरह पूँजीपति जानता है.
        किसी भी देश में बेहतरीन समाज की स्थापना कारपोरेट की पत्रकारिता और दलाली करके नहीं की जा सकती. इसके लिए सरोकार की पत्रकारिता का पक्षधर होना लाज़मी होगा़. मीडिया के ज़िम्मे वैज्ञानिक चेतना,सामाजिक नैतिक परिस्थितियों का निर्माण करना था. मानवीयता, स्वाधीन चेतना, प्रगतिशील विचारों, आदर्शों, मूल्यों अौर परिवर्तनों के परिवेश का सृजन करना था. सामाजिक-आर्थिक बराबरी के लिए अभियान चलाना था. सभी की भागीदारी वाला राजनैतिक माहौल और बेहतरीन जनतांत्रिकरण के लिए पहल करने के संकल्प को आगे बढ़ाना था. लेकिन मीडिया ने इस दिशा में निराश किया है. उक्त संकल्पों की पूर्ति से ही समाज के विश्वास को हासिल किया जा सकता है. किसी भी समाज को मारकर कोई कारोबार नहीं फलता-फूलता है. समाज ज़िंदगा रहेगा तभी हम जिन्दा रहेंगे. इस लिए समाज को जिन्दा रखना, मीडिया की ज़िम्मेवारी और जवाबदेही में शामिल है.
"दुनिया को अधिक ख़ूबसूरत बनाने की प्यास है, इसलिए लड़ते हैं, सौंदर्य की प्यास मनुष्य को पशुओं से अलग करती है..."
इसलिए 'सोने' का नहीं,समाज को जगाने का 'सपना' देखिए.



डॉ रमेश यादव
सहायक प्रोफ़ेसर
इग्नू, नई दिल्ली.



राजसत्ता, पूँजीवाद और कारपोरेट मीडिया के सपनों का सच ! राजसत्ता, पूँजीवाद और कारपोरेट मीडिया के सपनों का सच ! Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on October 26, 2013 Rating: 5

1 comment:

  1. सामाजिक सरोकार पर विमर्श का साहस दिखाने के लिए मधेपुरा टाइम्स
    को बधाई अौर शुभकामनाएँ !

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