गुरुओं के डेरे और
आश्रम सज गए हैं। आश्रमों का माहौल भी बदला-बदला सा है। मठों,
आश्रमों और संत-महात्माओं, महंतों, महामण्डलेश्वरों के डेरों में साल भर पसरा
रहने वाला सन्नाटा गायब है और उसका स्थान ले लिया है चेलों की फौज ने।
गुरुओं और चेलों की
पारस्परिक तलाश और ‘परस्परोपग्रहोपजीवानाम’ का संदेश भारतभूमि की हवाओं में पूरे शोर
के साथ गूंज रहा है। गुरुओं तक पहुंचने के सारे रास्तों पर भक्तों और अनुयायियों की
भारी भीड़ का ज्वार उमड़ा हुआ है।
हम सभी का
कत्र्तव्य है कि गुरुओं के प्रति परंपरागत श्रद्धा भाव रखें, उनका वंदन-अभिनंदन करें,
और वो हर काम करें जिनसे हमारे
गुरु खुश होते हैं और हमारी मनचाही मुराद पूरी होने का आशीर्वाद दे सकते हैं।
पुण्य भूमि भारत वर्ष में आज भी ऎसे गुरु मौजूद हैं जिन्हें वास्तव में गुरु होने
या बनाने लायक समझा जा सकता है और उनकी थोड़ी सी कृपा दृष्टि हमें निहाल कर सकती
है।
लेकिन उन सच्चे गुरुओं
के लिए राजपुरुषों और समृद्धजनों तथा अनुयायियों की भीड़ वाला सैलाब उमड़ाकर शक्ति परीक्षण
करने की जरूरत नहीं होती। न उन्हें अपने आपको स्थापित कराने के लिए विज्ञापनों, मीडिया या दूसरे तीसरे स्टंटों का सहारा लेना पड़ता है। ऎसे सच्चे गुरुओं
के लिए ईश्वर ही सर्वोपरि है, दान-दक्षिणा और प्रचार देने वाले या भीड़ का
आकार बढ़ाने वाले शिष्यों का समंदर नहीं।
इसी प्रकार
भारतभूमि पर शिक्षा और दिव्य ज्ञान से समाज को मार्गदर्शन देकर आगे लाने वाले
गुरुओं की भी कोई कमी नहीं है लेकिन इन लोगों के लिए भी मानवी भोग-विलास, यश-प्रतिष्ठा और पब्लिसिटी या बड़े लोगों की भीड़ जमाकर नौटंकी करना और गुरु
पूर्णिमा को शक्ति परीक्षण का अखाड़ा बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
जो लोग ईश्वर को
पाना चाहते हैं, समाज की सेवा और परोपकार करते हुए जीवन को
दिव्य बनाना एवं शाश्वत आनंद पाना चाहते हैं वे ऎसे सच्चे गुरुओं की शरण में जाकर
गुरु और शिष्ट परंपरा को धन्य करते रहे हैं। दूसरी
ओर अपने देश में हाल के दशकों में धर्म के नाम पर
एक ऎसी प्रजाति विकसित हो गई है जिसे धर्म के मर्म की बजाय धर्म से अर्थ प्राप्ति
और भोग-विलास
के साथ ही प्रतिष्ठा,
लोकप्रियता और पब्लिसिटी का
ऎसा महाभूत सवार हो गया है कि ये लोग धर्म के सहारे जाने कहां-कहां स्थापित हो चले
हैं। इनके लिए ईश्वर गौण हो गया है,
समृद्ध और समर्पित भक्तों की
भीड़ के आगे।

हर साल यह भीड़ कैस
बढ़ती रहे, बड़े-बड़े लोकप्रिय और प्रतिष्ठित कहे जाने
वाले लोग उनके चेलों में शुमार होकर इनकी प्रतिष्ठा ग्राफ कैसे ऊँचा उठता रहे और
किस तरह वे धर्मभीरू लोगों को पूरा-पूरा इस्तेमाल अपने हक़ में कर सकें, इसी पर इन गुरुओं का मैनजमेंट टिका हुआ है। भले ही उनके
शिष्यों में किसी भी प्रकार की संवेदनशीलता और मानवीय मूल्य प्रधान पात्रता किंचित
मात्र भी न हो।
दूसरी ओर शिष्यों की
भी हालत ऎसी ही है। ‘जैसा राजा-वैसी प्रजा’ की तर्ज पर ‘जैसे गुरु वैसे ही
चेले’। या यों कह लें कि जैसे चेले-वैसे गुरु। वह जमाना बीत
गया जब गुरुओं की तलाश में चेले जाने कितने कठिन रास्तों, अरण्य और पहाड़ों से होकर आश्रम तक पहुंचते थे और गुरु भी पात्रता देखकर
उन्हें शिष्य स्वीकार करता था। कइयों की तो पूरी जिन्दगी ही निकल जाती, तब कहीं जाकर गुरुजी प्रसन्न होते और दीक्षा मिल पाती। गुरुओं को भी
शिष्यों के सौन्दर्य, धन-संपदा और प्रतिष्ठा या पदों से कोई मतलब
नहीं था। वे सिर्फ उसकी पात्रता की परीक्षा लेते और खरे उतरने पर ही शिष्य स्वीकार
किया जाता।
आजकल तो गुरु और
शिष्य दोनों के लिए कोई पात्रता न रही है, न देखी जाती है।
तभी तो हमारे यहां जाने कितने शंकराचार्य, महामण्डलेश्वर, महंत और धर्माधिकारी हो गए हैं। इस फील्ड में जबरदस्त स्कोप को देखकर भीड़
भी बेतहाशा बढ़ती जा रही है। जिसका जो जी चाहे वह बन सकता है, बशर्ते कि वे सारे सम सामयिक हुनर हों, औरों को पटाने की
क्षमता हो, तथा वो सब कुछ पहले से तैयार हो जिसकी उन
महान दैवदूतों को प्रतीक्षा रहा करती है।
इस निरन्तर बढ़ती जा
रही भीड़ को देख कर जगह-जगह चेलों की भीड़ भी खूब बढ़ती जा रही है। कई लोगों को इन बाबाओं
की वजह से नए धंधे मिल गए हैं। कोई इनकी कृपा ( ? ) पाकर फाइनेंसर, भूमाफिया और प्रतिष्ठित श्रेष्ठीजन हो चले हैं और बाबाजी का हिसाब रखने
में माहिर हो गए हैं, कोई बाबाजी के नाम से स्कूल, धर्मशालाएं, आश्रम, अस्पताल और
स्कूल-कॉलेज चला रहे हैं और कई सारे न जाने कितने धंधों में रमे हुए लक्ष्मी को
कैद करने के सारे जतन कर रहे हैं। कई लोग अंदर की कृपा पाकर बड़े-बड़े प्रतिष्ठित
पदों पर जमते जा रहे हैं।
इन सारे रहस्यों से
नावाकिफ आम लोग बेचारे इनकी सफलताओं को देखकर बाबाजी को चमत्कारिक मानकर उनके
डेरों की ओर चप्पल घिसने लगे हैं। कुछ सच्चे और ईश्वर परायण तथा जमाने के मौजूदा
स्टंटों व पब्लिसिटी के हथकण्डों से दूर गुरुओं को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर
गुरुओं की स्थिति क्या है, यह जानकार लोगों से छिपी हुई नहीं है। इसे
सब जानते हैं।
अब गुरुओं और चेलों
दोनों को एक दूसरे की तलाश बनी रहने लगी है। गुरुओं का ध्यान ईश्वर या धर्म की बजाय
अब चेलों की संख्या बढ़ाकर शक्ति परीक्षण में विजयी भूमिका में बने रहने की हो गई
है। और इसीलिए हर साल पुराने चेलों के साथ मिलकर ये गुरु नए चेलों की तलाश में
गुरु पूर्णिमा को भुनाने में लगे रहते हैं। बड़े-बड़े इश्तहार, विज्ञापन, होर्डिंग्स और खबरों-तस्वीरों से लेकर
भांति-भांति के उत्सवी आयोजनों की ओर आम लोगों को आकर्षित करने के हथकण्डे यौवन पर
हैंं।
गुरुओं की
प्रतिष्ठा अब अनुयायियों की भीड़,
गुरु पूर्णिमा पर पाँव छूने
वालों की तादाद, आश्रम के बाहर खड़ी लक्झरी गाड़ियों और
वीआईपी लोगों की भरमार से प्रकट होने लगी है। गुरुजी को इससे कोई सरोकार नहीं कि
उनके वहाँ आने वाले कौन किस किस्म का है। गुरुजी पतितपावन जो ठहरे, उनके आश्रम में तो पतितों को भी पावन करने की क्षमताएं ईश्वर ने दे रखी
हैं।
फिर जहां एकाधिक समानधर्मा गुरुओं का
बोलबाला हो, वहां के बारे में तो कहना ही क्या। इन
गुरुओं के वहाँ गुरु पूर्णिमा की भीड़ जुटाने का जैसा कंपीटिशन होता है वैसा
राजनीति के मैदानों तक में भी देखने को नहीं मिलता। कलियुग
की छाया है। ऎसा ही चलता रहेगा। हालात बदल गए हैं। न वैसे गुरु रहे हैं, न चेले।
सभी गुरुओं को
गुरु पूर्णिमा की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं......
-डा० दीपक आचार्य (9413306077)
अब न वैसे गुरु रहे, न चेलों की फौज
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 22, 2013
Rating:
No comments: