हो रहे थे छद्म, भितरघात
वहशी इरादों से तार तार
वहशी इरादों से तार तार
होती रही उसकी अस्मत
एक थी सुनरी
जो नहीं कर सकी अपनी
जो नहीं कर सकी अपनी

नहीं दिखा सकी अपनी कालिख पिया को
मुंह छिपाती रही सास ससुर से
समाज के कलंक को
जला डाला अपने साथ ही
दे डाली अपने चीथड़ों की आहुति
दे डाली अपने चीथड़ों की आहुति
एक थी सुनरी
कलंकी घूम रहा है
कलंकी घूम रहा है
मूंछों पर ताव देता
सुनरी की छितराई अस्मत
सुनरी की छितराई अस्मत
बन गयी घर घर की चर्चा
सुना है मीडिया कर्मी घसीट लायें हैं
सुना है मीडिया कर्मी घसीट लायें हैं
पूरे परिवार को स्टूडियो में
सुनरी की लुटी अस्मत अब घर गाँव
सुनरी की लुटी अस्मत अब घर गाँव
शहर देश की सभी विधान सभाओं में गूंजेगी
अब न्याय अन्याय मिले न मिले
अब न्याय अन्याय मिले न मिले
जग हंसाई तो रहेगी
एक थी सुनरी
जिसकी सात साल की बच्ची
जिसकी सात साल की बच्ची
हर गली सड़क चौराहे पर पहचानी जा रही
है
बुढ़िया सास अंचारे से मुंह ढँक
बुढ़िया सास अंचारे से मुंह ढँक
कर जाती है हाट बाजार
पति और ससुर का बंद है हुक्का पानी
विस्थापित परिवार बन गया है
पति और ससुर का बंद है हुक्का पानी
विस्थापित परिवार बन गया है
विषय गोष्ठियों का
एक थी सुनरी , एक है सुनरी,
एक और होगी सुनरी .........
**डॉ सुधा उपाध्याय, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,
दिल्ली विश्वविद्यालय.
एक थी सुनरी ///डॉ सुधा उपाध्याय
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 28, 2012
Rating:

सशक्त और प्रभावशाली रचना.....
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