
जो
लोग हमारे लिए शत्रुओं की भूमिका का निर्वाह करते हैं
उनके प्रति शत्रुता नहीं रखें क्योंकि ये लोग शत्रुता के
आदी हैं। कल किन्हीं और के शत्रु थे, आज आपके शत्रु हैं, कल किसी और के शत्रु होंगे। शत्रु के रूप में
व्यवहार करना इनका मौलिक गुणधर्म है और इसलिए वे इस प्रकार
का बर्ताव करेंगे ही।
ऐसे
लोगों से मित्रता अथवा सुख-चैन की कामना करना तक
व्यर्थ है। गधे आखिरकार गधे ही होते हैं, इनके मालिक या बाड़े भले बदल जाएं। साँप आखिर साँप ही होते हैं, इनमें जहर न
हो तो इन्हें साँप कौन कहे।
पागल कुत्तों को समझाने का कोई फायदा नहीं होता।
कुछ
लोग शत्रुता करने और निभाने के लिए ही पैदा
होते हैं और कुछ लोग भ्रमों, आशंकाओं व शंकाओं तथा एकतरफा बातें सुन-सुनकर शत्रुता पाल लेते हैं। इन लोगों का
ईलाज भगवान के पास भी नहीं होता क्योंकि इस प्रकार की
अकारण शत्रुता के कीटाणु इनके रग-रग में होते हैं और ये तभी
जाते हैं कि जब इनकी रगों का खाक में रूपान्तरण हो जाए। इस किस्म के लोगों के भस्मीभूत होने से पहले तक इनमें
बदलाव की कोई संभावना नहीं दिखती, इसलिए इस प्रकार के शत्रुओं की गति-मुक्ति की कामना निरन्तर की जानी चाहिए।
जहाँ स्वार्थ और नकारात्मकता समाज में कूट-कूट कर भरी हो, लुच्चों-लफंगों का वर्चस्व हो, हर अच्छे काम में बाधाएं डालने वाले कई-कई महिषासुर हों, रचनात्मक गतिविधियों में अडंगा डालने
वाले शुंभ-निशुंभों की जमातें हांे और अच्छे सदाचारी लोगों की जिन्दगी में परेशानियां खड़ी कर देने वाले मधु-कैटभों
की भरमार हो, वहाँ किसी का भी अजातशत्रु होना असंभव है।
वह
जमाना चला गया जब बुरे काम करने वालों, समाजकंटकों और अपराधियों को समाज का भय था। आज तो ऐसे असामाजिक लोगों के अपने समूह बन गए हैं जिनसे पूरा समाज भय खाता है। हमेशा असामाजिकों का संगठन ज्यादा मजबूत होता है और यही कारण है कि राक्षसी समूह अच्छे लोगों, श्रेष्ठ सामाजिक एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों तथा
सामाजिक परिवर्तन के लिए आगे आने वाले लोगों को आगे नहीं बढ़ने देने में निरन्तर व्यवधान डालता रहता है। इन्द्र और
राक्षसों का सर्वोपरि काम यही होता है कि
अच्छाइयों और महापरिवर्तन के इच्छुकों का दमन किया जाए ताकि यथास्थितिवादी परिवेश कायम रहे।
समाज-जीवन से जुड़ा कोई सा क्षेत्र हो, कहीं पर थोड़ी सी भी सकारात्मक हलचल उन सभी लोगों के कान खड़े कर देती है जो नकारात्मकता, दंभ, उच्चाकांक्षा से घिरे, सामंती और शोषण
वृत्ति के होते हैं।
इन
सभी लोगों को लगता है कि जैसे सच कहने का साहस
करने वाले लोग उनकी जमीन खि़सकाने के जतन कर रहे हैं। ऐसे
में वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में किसी भी कर्म का सकारात्मक पहलू हो, वह उन लोगों की
नज़रों से नहीं बच सकता, जो निंदा और आलोचना के लिए ही पैदा हुए हैं।
ऐसे
में कोई सर्वस्व समर्पण करके भी अजातशत्रु नहीं हो
सकता। राम और कृष्ण के समय भी ऐसा नहीं हो पाया। मगर उस समय
सत्य की अपेक्षा असत्य, झूठ, फरेब और बेईमानी
नगण्य तथा दुर्लभ हुआ करती थी। आजकल सकारात्मकता, इंसानियत, ईमानदारी और शुचिता नगण्य होती जा रही है और चारों तरफ भ्रष्टाचार, बेईमानी तथा हरामखोरी छा रही है।
इन
हालातों में घर-परिवार या समाज से लेकर क्षेत्र की
कोई भी रचनात्मक और लोकोन्मुखी अथवा सामुदायिक कल्याण की
गतिविधि हो, इसके सूत्रपात से लेकर पूर्णता प्राप्ति तक
में कई प्रकार के विरोधाभास, शत्रुता और कटुताओं का बोलबाला स्वाभाविक है और ऐसा होना कोई नई बात नहीं
है।

दुनिया
में नकारात्मक, विघ्नसंतोषी और
तमाशबीनों का भी अपना खूब जमघट है जिनका काम ही हर कहीं घुसपैठ कर दोष ढूँढ़ना रह गया है और फिर ऐसे लोग गांवों से लेकर महानगरों
और जनपथों से लेकर राजपथों तक श्रृंखला की तरह मजबूत
कड़ी के रूप में इधर-उधर बिखरे हुए हैं।
इन
विषम और विचित्रताओं से भरी परिस्थितियों में हर
अच्छे व्यक्ति के लिए किसी भी क्षेत्र में काम करना
अत्यन्त जोखिम भरा हो गया है लेकिन दृढ़ आत्मविश्वास
और ईमानदारी के साथ कर्मयोग का
परिपालन किया जाए तो इस
प्रकार के नकारात्मक
भावों वाले और सदा वैर प्रधान
शत्रु चिल्लपों मचाने के बावजूद कुछ नहीं कर पाते हैं और अन्ततः इस किस्म के शत्रुओं को या तो कुत्ते की मौत मरना पड़ता है
अथवा मोयलों और मच्छरों की मौत, अथवा अपने सारे शत्रुता भरे अस्त्र-शस्त्रों की विफलता के गम में रो रोकर जिन्दगी पूरी करने को विवश हो जाना
पड़ता है।
लेकिन
हमारा प्रयास हमेशा यही होना चाहिए कि कोई भी
बिना किसी कारण के हमसे शत्रुता न रखे। क्योंकि जो हमसे
शत्रुता रखता है, उसका चिंतन हम करें या न करें मगर मूर्खता
और पशुता भरे ये तथाकथित शत्रु हमें मौके-बेमौके
जरूर याद करते हैं और जब-जब भी हमें ये याद करते हैं तब-तब
उनके और हमारे बीच अदृश्य तंतुओं से सेतु बन जाता है और इससे कर्षण शक्ति के द्वारा उनके नकारात्मक भावों का संचरण हमारी ओर होने
लगता है जो हमारे कामों में बाधा पहुंचाता है। चाहे
वह पढ़ाई-लिखाई हो, भजन-पूजन और ध्यान हो अथवा कोई और विशेष काम।
इसलिए
यह जरूरी है कि हमारे कर्मों की सफलताओं के
लिए अभीप्सित यात्राएं निर्बाध हों और ये तभी बाधाओं से हीन हो सकती हैं जब हम हर दृष्टि से पूरी तरह मुक्त होकर
साध्य की प्राप्ति में एकाग्रता से जुट जाएं, यह एकाग्रता भंग नहीं होनी चाहिए। इसलिए अकारण शत्रु न पालें।
कई
लोग बिना वजह शत्रु हो जाते हैं। ऐसे लोगों की कभी परवाह न करें। ये लोग जीवन भर ऐसे ही जड़ बुद्धि,
बकवासी और हरामखोर रहने वाले
हैं और जहाँ हैं वहीं रहेंगे, लेकिन हमें तो आगे बढ़ते रहना है।
यह
निश्चित मानियें कि ये लोग मनुष्य के रूप में हैं
इसलिए इनकी भाषा शैली और वाक्य सुनकर हमें क्रोध आता है
और शत्रुता का भान होता है। वरना इनको शत्रुता ही तो निभानी है और ऐसे में ये किसी हिंसक पशु के रूप में हमसे शत्रुता
निकालते तो हमारा कितना
नुकसान हो जाता।
कभी
तीखे नाखूनों, सिंगों, ठोस खुरों, पैने दाँतों आदि से काट खाते, गिरा देते या दुलत्ती ही मार देते। इसलिए
इस प्रकार के शत्रुओं से दूरी बनाए रखने और सावधान रहने के सिवा कोई चारा नहीं है। इनका अस्तित्व युगों तक रहने
वाला है। आज से मनुष्य की खाल में हैं, कल दूसरी योनियों में होंगे।
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डॉ. दीपक आचार्य(9413306077)
अकारण शत्रु पैदा न करें बेवजह बने शत्रुओं की परवाह न करें
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 25, 2012
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