शक्ति पूजा का महत्त्व समझें, दैवी पूजा के नाम पर नाटक न करें

आज से हर कहीं नवरात्रि की धूम शुरू होगी और सर्वत्र दैवी उपासना के नाम पर वही सब कुछ होगा जो हर साल होता रहा है। नवरात्रि शक्ति उपासना का महापर्व है। ये दिन शक्ति संचय के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। वर्ष भर शक्ति के क्षरण से जो रिक्तता आ जाती है उसकी भरपाई करने के लिए ही यह पर्व उपयुक्त है।
सृष्टि का संचालन शक्ति तत्व से है और शक्ति के बिना सब कुछ जड़ है। शिव भी तभी तक शिव हैं जब तक शक्ति का सान्निध्य और सामीप्य है वरना शक्ति के बगैर शिव भी शव ही हैं। पराम्बा आद्यशक्ति की उपासना ब्रह्माण्ड में आदि काल से प्रचलित है और इसी से प्राप्त ऊर्जाओं और सामर्थ्य से व्यष्टि और समष्टि का उद्भव व संचालन होता है। नवरात्रि काल को सामान्य समझने वाले लोग जीवन में भी सामान्य से अधिक कुछ नहीं कर पाते हैं जबकि शक्ति उपासना का आश्रय ग्रहण करने वाले लोग वह सब कुछ पा जाते हैं जिन्हें भगवती जगदम्बा देना चाहती है। भगवती की कृपा के बगैर जीवन का प्रत्येक क्षण भारी प्रतीत होता है और जीवन से आनंद एवं आत्मतोष के भाव पलायन कर जाते हैं।
शक्ति उपासना के महापर्व नवरात्रि का जो लोग पूरा लाभ ले पाते हैं उनके लिए वर्ष भर सुकून का दरिया उमड़ता रहता है। इस उपासना का अर्थ केवल दिखाऊ उपासना नहीं है बल्कि यह पर्व ऐसी उपासना को अभिव्यक्त करता है जहाँ उपासक और उपास्य के बीच सीधा संबंध बनता है और इसके बीच में और कोई नहीं होता।
पूरी करुणा, वात्सल्य, ममत्व और स्नेह उण्डेलते हुए उपासना की धाराएं बहती हैं और इनका एकत्व इतना अधिक हो जाता है कि एक समय वह आ जाता है जब सिर्फ आनंद ही आनंद उमड़ता रहता है, विषाद, शोक, भय और उद्विग्नता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं रहता।
ऐसा नहीं कि यह क्षणिक आनंद हो, बल्कि माँ की पूजा और उपासनाओं से भरे सारे मार्ग स्निग्ध प्रेम से भरे हुए और शाश्वत होते हैं जहां माँ के आराधक के लिए संसार की कोई वस्तु दुर्लभ नहीं होती। फिर जो श्रेष्ठ एवं उच्चकोटि के साधक संसार की बजाय माँ को चाहते हैं उनके लिए माँ का आँचल उपलब्ध हो ही जाता है। जैसे कि रामकृष्ण परमहंस को हो गया था। वे माँ काली से सीधे वार्तालाप करते थे।
माँ का आराधक होना मात्र साधक की उदारता के चरमोत्कर्ष को इंगित करता है। जो माँ का उपासक है वह जननी, जगत जननी  और मातृभूमि का भी सच्चा एवं समर्पित उपासक होता है।
इससे भी आगे बढ़कर माँ का साधक संसार की समस्त स्त्रियों के प्रति आदर और सम्मान तथा अच्छे भाव रखता है। वस्तुतः माँ को मानने का अर्थ ही यह है कि जगत की सभी स्त्रियों में माँ का भाव रखे।  जो लोग ऐसा नहीं कर सकते हैं उन्हें  भगवती पराम्बा की पूजा-उपासना का कोई अधिकार नहीं है।
एक तरफ दैवी पूजा और उपासना के नाम पर धूम-धड़ाका, गरबा नृत्य, दैवी स्तुतियों का गान और उच्च स्वरों में मंत्रों का उच्चारण और दूसरी तरफ विभिन्न रूपों में हमारे समक्ष उपस्थित साक्षात माँ का अनादर, प्रताड़ना और बुरे भाव।
इस प्रकार का विरोधाभास रखने वाले लोग माँ के उपासक नहीं कहे जा सकते बल्कि ऐसे लोग जो कुछ करते हैं उसे दैवी पूजा के नाम पर आडम्बर के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोग चाहे कितने ही घण्टों दैवी उपासना का ढोंग करें, कितने ही मन प्रसाद चढ़ाएं, करोड़ों जप भी कर लें, मगर इसका कोई अर्थ नहीं है। ऐसे आडम्बरी लोगों से दैवी हमेशा नाराज ही रहती है।
जो लोग अपने घर में अपनी माँ, बहन, पत्नी या और किसी भी स्त्री को अपशब्द कहते हों, उनके प्रति बुरे भाव रखते हों, उनके साथ मारपीट करते हों, उनका जगह-जगह अनादर करते हों या उनकी सम्पत्ति, जमीन-जायदाद का शोषण करते हैं, स्त्रियों के बारे में कुटिल बातें और व्यवहार रखते हैं, स्त्रियों से संबंधित बकवास करते हैं, ऐसे सभी लोगों पर दैवी हमेशा नाराज रहा करती है।
ऐसे लोगों को दैवी पूजा का अधिकार नहीं है। वस्तुतः संसार की कोई भी स्त्री यदि किसी भी कारण से साधक के प्रति वैमनस्य रखती है तो वह साधक दैवी पूजा में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है तथा उसे पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
बात चाहें दैवी उपासना की हो अथवा दैव उपासना की। स्त्री मात्र के प्रति अनादर और घृणा या द्वेष का भाव रखने वाले लोग किसी भी प्रकार से साधक नहीं हो सकते हैं। हर देवता के साथ दैवी और हर दैवी के साथ देवता का संबंध होता है। ऐसे में एक-दूसरे को नाराज रखकर हम दैवी कृपा की कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। ऐसे लोग हमेशा किसी न किसी रूप से अभिशप्त जीवन जीते हैं।
हमारे अपने क्षेत्र की बात हो या और किसी इलाके की। हर कहीं दैवी उपासकों की भारी भीड़ है जो इन नवरात्रियों में दिन-रात किसी न किसी तरह से दैवी पूजा में लगी रहेगी। पीताम्बर, रक्ताम्बरधारी, छापा तिलक लगाये और ऋषि-मुनियों का वेष धारण कर दैवी उपासना में रमने वाले लोगों का सर्वत्र जमघट लगा हुआ है। मन्दिरों से लेकर गरबा चौकों तक ऊँची आवाजों में लाउडस्पीकरों का शोर यही बताता है कि जाने पूरा क्षेत्र ही माँ की आराधना में व्यस्त हो।
शक्ति संचय का पर्व ऐकान्तिक और सामूहिक दोनों ही प्रकार का है। एक ओर जहां पूजा-उपासना ऐकान्तिक साधना को अभिव्यक्त करते हैं वहीं गरबा नृत्यों और संकीर्तनों की धूम सामूहिक उपासना को संबल प्रदान करती है।
हर तरफ माँ ही माँ की बातें हैं और माँ की आराधना के मंत्रों की गूंज भरी हुई है।  मगर शक्ति पूजा के मर्म से कितने लोग भिज्ञ हैं, यह बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न आज हमारे सामने है।
शक्ति सदियों से हमारे सामने विभिन्न रूपों में सदैव विद्यमान रही है। माँ, बहन, पत्नी, स्त्री और कई-कई रूपों में दृश्यमान शक्ति तत्व की हम कितनी पूछ करते रहे हैं, इन्हें कितना आदर सम्मान देते रहे हैं, यह सोचने का पर्व है नवरात्रि।
हममें से कितने लोग साक्षात दृश्यमान इन शक्ति स्वरूपाओं को इज्जत देते हैं और उनके प्रति श्रद्धा, स्नेह या आदर भाव रखते हैं। इन्हीं के आधार पर तय होता है कि संसार में शक्ति उपासना का घनत्व कितना है और शक्ति उपासना के नाम पर सालाना आडम्बर करने वाले लोग कितने पानी में हैं।
जिन लोगों को दैवी उपासना में सिद्धि प्राप्त करनी हो उन्हें चाहिए कि किसी भी स्त्री का अनादर न करें तथा संसार की समस्त स्त्रियों के प्रति मन से आदर-सम्मान रखे।
इस प्रकार के शुचिता पूर्ण भावों को सामने रखकर ही हम नवरात्रि पूजा को सफल बना सकते हैं अन्यथा कभी नहीं। सिर्फ आडम्बर ही करना हो तो उसके लिए कहीं कोई बंधन है ही नहीं। हम सब इसके लिए हमेशा स्वच्छन्द और उन्मुक्त हैं।

 --डॉ. दीपक आचार्(9413306077)

शक्ति पूजा का महत्त्व समझें, दैवी पूजा के नाम पर नाटक न करें शक्ति पूजा का महत्त्व समझें, दैवी पूजा के नाम पर नाटक न करें Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on October 16, 2012 Rating: 5

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