विकास यात्रा
यात्रा तो आखिर यात्रा होती है.चाहे वह हिंदुओं की तीर्थयात्रा हो या मुसलामानों की हजयात्रा.चाहे विदेश यात्रा हो या फिर शवयात्रा.गांधी बाबा ने भी कभी दांडी यात्रा की थी.हर प्रकार की यात्रा का निहितार्थ है.अब यात्रा के अध्याय में एक और नाम जुट गया-"विकास यात्रा."इस विशेष प्रकार की यात्रा का विकास हुआ हमारे विकासपुत्र की विकसित खोपड़ी में.वैसे फिलहाल इसकी वैधता समाप्त हो चुकी है.पुन: 'रेनुअल ' की जोर-शोर से तैयारी चल रही है.
जब बदनाम प्रदेश में भूत सरकार की कब्र पर प्रेत सरकार का प्रादुर्भाव हुआ,विकास पुत्र मुखिया बनते ही सुनहले सपनों को पालना शुरू किया.विकास को आधार बनाकर बड़ी-बड़ी घोषणाओं की बौछार होने लगी.शिक्षा,स्वास्थ्य और सड़कों के कायांतरण में कुबेर का खजाना खुल गया.राहू-केतु का अडंगा लगा नही और न ही शनि की वक्रदृष्टि उस पर पड़ी.'खुला खेल फर्रुखावादी' की कहावत चरितार्थ हुई.
सम्पूर्ण क्रान्ति के जनक जयप्रकाश के राजनैतिक वारिसों ने पहले भी जम कर लूट मचाई थी,उसकी कड़ी अब तक अटूट बनी रही.घोषणाओं और योजनाओं का भौतिक सत्यापन का ख्याल रहा नही,महज ख्याली पुलाव पकाते रहे.अंक आंकड़ों के बाजीगर अफसरों और चाटुकार-चारण ठेकेदारों की संगठित बिरादरी ने उन्हें 'हाईटेक' किया.फर्जी डिग्रीधारी ज्ञानदाताओं की भांति सुशासक की विदेशी डिग्री उन्हें उपहार में मिल गयी.
सम्पूर्ण क्रान्ति के जनक जयप्रकाश के राजनैतिक वारिसों ने पहले भी जम कर लूट मचाई थी,उसकी कड़ी अब तक अटूट बनी रही.घोषणाओं और योजनाओं का भौतिक सत्यापन का ख्याल रहा नही,महज ख्याली पुलाव पकाते रहे.अंक आंकड़ों के बाजीगर अफसरों और चाटुकार-चारण ठेकेदारों की संगठित बिरादरी ने उन्हें 'हाईटेक' किया.फर्जी डिग्रीधारी ज्ञानदाताओं की भांति सुशासक की विदेशी डिग्री उन्हें उपहार में मिल गयी.
गलतफहमी नामक लाइलाज रोग से ग्रसित सुशासनबाबू विकासरथ पर आरूढ़ होकर निकल पड़े अपने सपनों के शीशमहल में झांककर प्रदेशवासियों के दिल जीतने. "भारत की आत्मा गाँव में बसती है" की रट लगाते सुनकर अफसर एंड कंपनी के हाथपांव फूलने लगे.उन्होंने तिकडम भिडाकर राजा के रथ को विकसित बस्ती की ओर सरकाया.अब राजा की गलतफहमी मोम की तरह गलने लगी.आबंटित अधूरी इंदिरा आवास उन्हें मुंह चिढा रहा था.'रोजगार गारंटी योजना'का पोल ग्रामीण सड़कें खोल रही थी.स्वास्थ्य विभाग अस्वस्थ नजर आया.शिक्षा की खिचड़ी में स्वार्थ की सडांध से उन्हें उबकाई आने लगी.मूलभूत समस्याओं का अम्बार देखकर उलाहने-तानों से तंग आकार सुस्ताने की इच्छा हुई लेकिन, शाम का विश्राम मच्छरों के कोरस गान से शुरू हुआ.सुशासन का डंका 'डेंगू' की डंक के डर से मंद पड़ गया.मुख्यालय की याद सताने लगी.'बैक टू पैवेलियन' हो लिये.
जनता सबकुछ जानती है -बहुरूपिये के रूप अनेक हैं.मगर उनकी याददाश्त इतनी कमजोर होती है कि अपने निवाले के हवाले रोटियों की गिनती भी भूल जाती है.तभी तो जाति-धर्म की आंच पर स्वार्थ की रोटी की रोटी सेंकने में माहिर नेताओं का भरपूर सहयोग करती है.सच,वर्तमान माहौल में यदि महात्मा गांधी भी चुनाव में प्रत्याशी होते तो उनकी जमानत जब्त करवा देती अपने कृतज्ञ राष्ट्र की महान जनता!
--पी० बिहारी 'बेधड़क'
--पी० बिहारी 'बेधड़क'
रविवार विशेष- व्यंग - विकास यात्रा
Reviewed by Rakesh Singh
on
October 10, 2010
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