उफ़ ! ये बंद, हाय ये नेता

सुपौल से लौटकर पंकज भारतीय/०५ जुलाई २०१०
केन्द्र सरकार की आर्थिक नीति और पेट्रो पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ राजग गठबंधन और वामदलों ने भारत बंद का आह्वान किया.बंद के दौरान हमने सुपौल शहर का जायजा लिया और जानना चाहा बंद के पीछे छुपे मनोविज्ञान और बंद के औचित्य को.हमने पाया कि व्यावसायिक प्रतिष्ठान और भारी वाहन पूरी तरह से बंद रहे.नेताजी खुश कि चक्का जाम सफल
रहा.लेकिन सच तो यह है कि व्यावसायिक प्रतिष्ठान के मालिक हो या भारी वाहन के मालिक,वो पहले से ही मानसिक रूप से बंद को सफल बनाने में ही अपनी सफलता मानते हैं.हमारी मुलाक़ात सुपौल रेलवे स्टेशन पर छात्र राजीव से होती है जो मुझसे पूछता है कि महंगाई के लिए हम छात्र कितने जिम्मेवार हैं?
दरअसल राजीव को एक परीक्षा में सम्मिलित होने सहरसा जाना था लेकिन रेल का चक्का जाम था.महावीर चौक पर रिक्शा चालक बुद्धन पासवान से मुलाक़ात हुई जो लाख टके  की बात कह गया.उसने कहा साहब,महंगाई से गरीब ही मर रहा है और आज जो बंद हुआ उसमे हम गरीब ही शिकार हुए हैं.
लोहियानगर चौक पर चाय दुकानदार ब्रह्मदेव ने पत्रकार जानकार मुझसे पूछा कि बंद तो सफल रहा,क्या अब महंगाई खत्म हो जायेगी? पिपरा के जयप्रकाश यादव  को डॉक्टर के यहाँ जाना था,तो कटैया निर्मली के शिवनारायण कामैत को मुक़दमे के सिलसिले में सुपौल कोर्ट तो हुसैन चौक की रूखसाना को
अपने अब्बा के जनाजे में शामिल होने के लिए मायके पुरैनी जाना था.जाहिर है,परेशान लोग महंगाई को नहीं,नेताजी को कोस रहे थे.आँखों देखी और कानों सुनी से एक निष्कर्ष पर पहुंचा कि महंगाई से जनता त्रस्त हो सकती है,नेताजी नहीं.नेताजी के लिए महंगाई सिर्फ एक मुद्दा है जिसकी मदद से वो अपनी राजनीति चमका सकते हैं.चलते-चलते मुझे भी ख्याल आया कि सियासत तवायफ का वह दुपट्टा है जो किसी के आंसूओं से नही भींगता है.
उफ़ ! ये बंद, हाय ये नेता उफ़ ! ये बंद, हाय ये नेता Reviewed by Rakesh Singh on July 05, 2010 Rating: 5

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