इस्लामी वर्ष यानी
हिजरी सन् के पहले महीने मुहर्रम के महीने को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में
शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सलअल्लाहअलैहेवसल्लम ने इसे
अल्लाह का महीना कहा है।
इस पाक़ माह में रोज़ा रखने की अहमियत बयान करते हुए
उन्होंने कहा है कि रमजान के अलावा सबसे अच्छे रोज़े वे होते हैं जो अल्लाह के
महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। मुहर्रम के दसवे दिन को यौमें आशुरा कहा
जाता है जिसका इस्लाम ही नहीं, मानवता के इतिहास
में एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। मुसलमान इस दिन और इसके एक दिन बाद या पहले यानी
दो दिन रोजा रखते है । क्योकि इसी दिन फिरौन की
सेना जो मुसा अलैहेवसल्लम को पीछा कर रही थी और अल्लाह के हुक्म से समन्दर
मे गर्क कर गई थी । यौमे आशुरा के दिन ही जब सत्य, न्याय और मानवीयता के लिए संघर्षरत हज़रत मोहम्मद सलअल्लाह
अलैहेवसल्लम के नवासे हुसैन इब्न अली की कर्बला के युद्ध में उनके बहत्तर स्वजनों
और दोस्तों के साथ शहादत हुई थी।
हुसैन विश्व इतिहास
की ऐसी कुछ ऐसे महानतम विभूतियों में हैं जिन्होंने
अपनी सीमित सैन्य क्षमता के
बावज़ूद आततायी यजीद की विशाल सेना के आगे आत्मसमर्पण करने के बजाय लड़ते हुए अपनी
और अपने समूचे कुनबे की क़ुर्बानी देना स्वीकार किया। कर्बला में इंसानियत के
दुश्मन यजीद की अथाह सैन्य शक्ति के विरुद्ध हुसैन और उनके स्वजनों के प्रतीकात्मक
प्रतिरोध और आख़िर में उन सबको भूखा-प्यासा रखकर यजीद की सेना द्वारा उनकी बर्बर
हत्या के किस्से पढ़-सुनकर आज भी आंखें नम हो जाती हैं। मनुष्यता के हित में अपना
सब कुछ लुटाकर भी कर्बला में उन्होंने सत्य के पक्ष में अदम्य साहस की जो रोशनी
फैलाई,
वह सदियों से न्याय और उच्च जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए
लड़ रहे लोगों की राह रौशन करती आ रही है।
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कहा जाता है कि 'क़त्ले हुसैन असल में मरगे यज़ीद हैं / इस्लाम ज़िन्दा होता है
हर कर्बला के बाद।' इमाम हुसैन का वह बलिदान दुनिया भर के मुसलमानों के लिए ही नहीं,
संपूर्ण मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। हुसैन
मुसलमानों के ही नहीं, सबके हैं। यही वज़ह है कि यजीद के साथ जंग में लाहौर के ब्राह्मण रहब दत्त के
सात बेटों ने भी शहादत दी थी जिनके वंशज ख़ुद को गर्व से हुसैनी ब्राह्मण कहते हैं।
मरहूम अभिनेता सुनील दत्त इन्हीं हुसैनी ब्राह्मणों के वंशज थे।
इस्लाम के प्रसार
के बारे में पूछे गए एक सवाल के ज़वाब में एक बार महात्मा गांधी ने कहा था- 'मेरा विश्वास है कि इस्लाम का विस्तार उसके अनुयायियों की
तलवार के ज़ोर पर नहीं, इमाम हुसैन के सर्वोच्च बलिदान की वज़ह
से हुआ।'
नेल्सन मंडेला ने अपने एक संस्मरण में लिखा है - 'क़ैद में मैं बीस साल से ज्यादा गुज़ार चुका था। एक रात मुझे
ख्याल आया कि मैं सरकार की शर्तों पर आत्मसमर्पण कर इस यातना से मुक्त हो जाऊं,
लेकिन तभी अचानक मुझे इमाम हुसैन और करबला की याद आई। उनकी
याद ने मुझे वह ताक़त दी कि मैं विपरीत परिस्थितियों में भी स्वतंत्रता के अधिकार
के लिए खड़ा रह सकूं।'
लोग सही कहते हैं कि
इमाम हुसैन आज भी ज़िन्दा हैं, मगर यजीद भी अभी कहां मरा है ?
यजीद अब एक व्यक्ति का नहीं, एक अन्यायी और बर्बर सोच और मानसिकता का नाम है। दुनिया में
जहां कहीं भी आतंक, ज़ुल्म, अन्याय,
बर्बरता, अपराध और हिंसा है, यजीद वहां-वहां मौज़ूद है। यही वज़ह है कि हुसैन हर दौर में
प्रासंगिक हैं। मुहर्रम उनके मातम में अपना ही खून बहाने का नहीं,
उनके सर्वोच्च बलिदान से प्रेरणा लेते हुए मनुष्यता, समानता, अमन, न्याय और अधिकार के लिए उठ खड़े होने का अवसर है। (संकलन : प्रदीप
कुमार झा)
मुहर्रम: इंसानियत के दुश्मन के खिलाफ हुसैन और उनके स्वजन कुर्बान हुए थे कर्बला में
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 01, 2017
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