|प्रिय रंजन|14 अगस्त 2014|
मधेपुरा का स्वास्थ्य विभाग खुद सरकारी लापरवाही का शिकार
है और सबसे अधिक ईमानदारी से कार्य कर रही महिलाकर्मी व चतुर्थवर्गीय कर्मचारी का स्थानान्तरण
करके सुधार के नाम पर अधिकारी अपनी पीठ थप-थपा रहे हैं. कहा जा सकता है कि सबसे अधिक
कार्य करने वाली महिला कर्मी को सबसे बडा कामचोर समझ रहे हैं यहां के अधिकारी और
डॉक्टर. सीधी बात है कि ये महिला हैं, कमजोर हैं, इनको कानून और अधिकारी का डर है.
दूसरी तरफ हास्यास्पद बात ये है
कि मधेपुरा के एसीएमओ सहित सभी सरकारी चिकित्सक अस्पताल को छोड़ अपना-अपना निजी क्लिनिक
चलाने में मशगूल हैं और इन्हें देखने वाला
कोई नही है. ताज्जुब की बात तो ये भी है कि अपनी झूठी वाह-वाही के लिए काम चोर कुछ पीएचसी के कर्मी और यूनिसेफ के लोग
अपने अधिकारी के सामने सिर्फ महिलाकर्मी की ही शिकायत कियाकरते हैं और उसी झूठी शिकायत
पर अधिकारी भी विश्वास कर आगे की कार्रवाई करते हैं. सवाल बड़ा है कि यदि अधिकारी व
चिकित्सक सहित अन्य कर्मी ईमानदारी से कार्य करे तो महिला तथा चतुर्थवर्गीय कर्मी अपने
कार्यो में लापरवाही कैसे कर सकते हैं.
हैरत की बात तो यह है कि शायद मधेपुरा देश का
ऐसा अनोखा जिला है जहां के सदर अस्पताल में किसी भी रोग के विशेषज्ञ चिकित्सक नही हैं
और न ही अस्पताल में इनका अपना टेक्निकल हैंड कर्मचारी.
अगर एक लाइन में कहा जाय तो यह अस्पताल
सिर्फ रोगी को रेफर करने व इंज्यूरी तथा पोस्टर्माटम रिर्पोट देने के लिए बना हुआ है.
इस अस्पताल में जो भी चिकित्सक पदस्थापित हैं वे अभी भी परिपक्व नहीं कहे जा सकते
हैं. एक बानगी सुनिए, पिछले दिन एक पुलिस के जवान को पेट में जोरों का दर्द हो रहा
था तो सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसे पेट दर्द से छुटकारा के लिए आठ इंजेक्शन
लगाये गए, पर दर्द आराम न हुआ. यहाँ के ‘सुयोग्य’ चिकित्सक पांच घंटे तक अपनी योग्यता दिखाते रहे, पर
योग्यता हो तब न ! वहीँ एक प्राईवेट चिकित्सक के पास जाते ही एक इंजेक्शन व एक टेबलेट
में महज आधे धंटे में ही दर्द ठीक हो गया. इसे आप क्या कहेंगे?
सच कहें, आज तक कोई भी उच्चाधिकारी
एवं सांसद व विधायक ने ईमानदारी से सदर अस्पताल सहित पीएचसी में खाली पडे चिकित्सक
व कर्मी की कमी को दूर करने की दिशा में सार्थक पहल नही की. लेकिन सिस्टम सुधारने के
नाम पर सिर्फ महिला कर्मी, जिनके सहारे स्वास्थ्य विभाग चल रहा है उसे तंग तबाह कर
सुधार प्रक्रिया की इतिश्री मान ली जाती है. हां, उच्चाधिकारी व जनप्रतिनिधि इतना
जरूर कहा करते हैं कि स्वास्थ्य विभाग के सिस्टम में सुधार किया जाएगा, प्रधान सचिव
से बात किया हूं. लेकिन कैसे सुधार होगा इसकी कोई सटीक योजना धरातल पे कहीं से
नहीं दिख रही है.
यही नहीं सदर अस्पताल में 50 लाख की लागत से बने सिविल
सर्जन आवास में बगैर बाथरूम और शौचालय का भवन बनाने बाले अधिकारी पर अब तक कार्रवाई
नहीं हुई है. 40 लाख की लागत से बने आईसीयू भवन जीर्णशीर्ण अवस्था में पहुंच गया है और क्यों नही
हुआ चालू इसका कोई ठोस जवाब किसी के पास नहीं है. कहां हैं प्रशासन और सांसद
महोदय.
जिले के पीएचसी का तो और
बुरा हाल है. अधिकाँश पीएचसी में एएनएम व अन्य कर्मी सहित चिकित्सकों की भारी कमी है
जिसके कारण एक ही एएनएम से कई-कई जगहों पर किसी तरह से काम चलाया जा रहा है. दर्जन
भर से अधिक सरकार की नई-नई योजनाएं आ रही है उसे भी सरजमीन पर उतारने का जिम्मा भी
इन्हीं गिने चुने महिलाकर्मी पर है. स्वाभाविक है कि कर्मी की कमी के कारण इन योजनाओं
का शत-प्रतिशत लाभ लोगों तक पहुंचने में देरी हो रही है, और जब योजना का लक्ष्य पूरा
नही होता है तो जिला प्रशासन के अधिकारी व स्वास्थ्य विभाग इन्हीं महिला कर्मी को जिम्मेवार
मान बैठते हैं.
हालात
बदतर हैं और विभाग और अधिकारियों की पॉलिसी से जिले में स्वास्थ्य सेवा बदहाल है और
कब इसका उद्धार किसके द्वारा होगा कहना मुश्किल है.
स्वास्थ्य विभाग संसाधन विहीन फिर भी अधिकारी और सांसद अंधेरे में सिस्टम सुधारने का कर रहे हैं ढोंग
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 14, 2014
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