
शेखर
कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में एक दृश्य था जिसमें फूलन के कपड़े उतार कर उसे कुंए
से पानी लाने को कहा गया था. नंगी युवती कुंए पर आई और फिल्म के ‘बुद्धिजीवी’ दर्शकों ने आँखे फाड़-फाड़ कर उसे
देखी और पैसा वसूल माना. इस सच्चाई को जाने बिना कि वह लड़की जो उस छोटे से रोल में
आई थी, अपने बीमार भाई के ऑपरेशन के लिए पैसे जमा करने के लिए मजबूर थी. फिल्म के
निर्माता-निर्देशक को दर्शकों को कुछ दिखा कर कमाई करनी थी और मानसिक दिवालिएपन के
शिकार दर्शक ने फिल्म को उसी तरह के दृश्यों के आधार पर खूब सराहा था.
मजबूरी
में आती हैं लड़कियां: कई थियेटरों में काम करने वाली अधिकाँश लड़कियां यहाँ
मजबूरी में काम करती है. कोई अपने परिवार को भूखमरी की स्थिति से बाहर निकलना
चाहती है तो किसी को बीमार पिता और भाई के इलाज के लिए रूपये चाहिए होते हैं. किसी
के सफेदपोश प्रेमी ने उसे धोखा देकर इस दलदल में डाल दिया होता है तो कोई वेश्या
परिवार में जन्मी होती है जिसे कथित सभ्य समाज अपनाने से इंकार करते हैं. दर्शकों
के सामने अश्लील प्रदर्शन उनकी मजबूरी होती है क्योंकि उनके परफॉर्मेंस के आधार पर
थियेटर मालिक उन्हें अधिक पैसे का भुगतान करता है जिसकी उसे सख्त जरूरत होती है.
दर्शकों
के टाइप: थियेटर में जाने वाले अधिकाँश दर्शक अक्सर जाते वक्त खुद को
लोगों की नजर से बचाकर भीतर जाते हैं. इनमें से कई अशिक्षित और नशे में धुत्त होते
हैं. नर्तकियों को देखकर इनकी हरकतें और सीटियाँ ही इनके मानसिकता का परिचय कराती हैं.
यहाँ रात की किलकारियों के शामिल दर्शकों में समाज सेवा की भावना शायद ही तलाशी जा
सकती है. दर्शक इन नर्तकियों को सिर्फ ‘शरीर’ से जानना चाहते हैं, इनकी मजबूरियों से इन्हें कोई लेना
देना नहीं होता है. अगर साफ़-साफ़ कहें तो थियेटर देख कर ‘मजा’ लेने वाले अधिकाँश दर्शक ‘रेपिस्ट मानसिकता’ के होते हैं और ऐसे कार्यक्रमों
का प्रदर्शन दुष्कर्म और छेड़खानी की घटना में बढ़ोतरी का कारण बन सकते हैं.
(अगले भाग में होगी थियेटर से जुड़े कुछ और पहलूओं पर
चर्चा, पढते रहें और टिप्पणी करते रहें)
(वि.सं.)
थियेटरनामा (भाग-2): मजबूर लड़कियां, मानसिक दिवालिया दर्शक
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
March 18, 2013
Rating:

गुरूजी, जिन्हेँ इन अश्लील थियेटरोँ की सच्चाई बतलाती खबरोँ से तकलीफ है, हम उनकी गिरी हुई मानसिकता को समझ सकते है। आप जारी रखिये. . .
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