योग्यता और हुनर भरे गुणों से सम्पन्न लोगों को किसी प्रकार
की बाहरी शक्ति, किसी आका की ताकत या किसी की दया और कृपा की कोई जरूरत नहीं पड़ती लेकिन दुनिया में अब
पुरुषार्थी किस्म के लोगों की दिनों दिन
कमी होती जा रही है और ऎसे में आदमियों की जो खेप हमारे सामने आने लगी है उनमें बहुत कम प्रतिशत वाले
हुनरमंद और स्वाभिमानी लोगों को छोड़ कर काफी संख्या में ऎसे लोगों का बाहुल्य होता जा रहा है तो कहीं न
कहीं से कमजोर हैं अथवा
आत्महीनता
से ग्रस्त।
ऎसे लोगों की ही तरह आदमियों की एक प्रजाति और है जो
किसी एक काम में दक्ष तो नहीं कही जा
सकती है लेकिन लल्लो-चप्पो, हर
प्रकार की
सेवा-सुश्रुषा, चरण स्पर्श से लेकर पाँव
दबाने तक का अजीब किस्म के हुनर वाली होती है और ये किस्म कहीं भी फिट हो जाती है।
या यों कहें कि इस किस्म के लोगों को भी तलाश बनी रहती
है उस किस्म के लोगों की जो अकेले
के दम पर कुछ भी कर गुजरने का माद्दा नहीं रखते या किसी न किसी तरह से अपने आपको कमजोर महसूस करते रहते हैं।
इन दोनों ही किस्मों का हमारे अपने क्षेत्र से लेकर
सर्वत्र बाहुल्य होता जा रहा है। यह
भी सच है कि इन दोनों ही किस्मों के लोगों के बीच अदृश्य चुम्बकीय आकर्षण
होता है और इसी आकर्षण की वजह से ये लोग एक-दूसरे के प्रति खींचे चले आते हैं और किसी न किसी कर्म की
बदौलत साथ-साथ काम करने लगते हैं।
यह आकर्षण लम्बे समय तक भी टिक सकता है और क्षणिक भी
संभव है। यह दोनों पक्षों के पारस्परिक
स्वार्थों, जायज-नाजायज करमों, श्वेत श्याम रिश्तों और लाभ-हानि के संबंधों पर
निर्भर करता है। जितना ज्यादा स्वार्थ उतने अधिक समय तक लम्बा खींचता है यह पारस्परिक संबंध।
जहां कहीं किसी स्वार्थ में कमी की वजह से कोई खटास आ गई
कि संबंधों का राम नाम सत्य हो ही
जाने वाला है। पर ऎसा बहुधा इसलिए नहीं होता है क्योंकि इस प्रकार के संबंध उन्हीं लोगों में हुआ करते हैं
जिनकी वृत्तियाँ समान हों।
और यों भी इस प्रकार की घनिष्ठता रखने वाले लोगों में
किसी भी प्रकार की शुचिता नहीं हुआ
करती, ऎसे
लोगों में जो संबंध सायास या अनायास
जुड़ते हैं उनका उद्देश्य भी कभी पवित्र नहीं
हुआ करता। इसलिए मैले में मैला स्वाभाविक रूप से समा ही जाता है और फिर दोनों एक जैसे हो जाते हैं।
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अंधेरे में अंधेरों का यह मिश्रण ही ऎसा होता है कि किसी भी
कोने या दृष्टि से देखें तो अंधियारा
ही अंधियारा नज़र आता है, रोशनी का कोई कतरा न वहां दिख पाता है, न आ ही पाता है। वहाँ सभी पक्षों के हृदयों की
दीवारों से लेकर परिवेश तक में
कालिख ही हुआ करती है जो रोशनी तक को भी डकार जाने का सामथ्र्य रखती है।
आमतौर पर अंधेरा पसंद लोगों के मध्य ही परस्पर इस प्रकार
का आकर्षण और साहचर्य देखा जा सकता
है। क्योंकि आदमी की ये दोनों ही किस्में आधी-अधूरी और दूसरों के भरोसे जीने वाली हुआ करती हैंं।
छोटे से छोटा आदमी हो या बड़े से बड़ा, सभी में इस किस्म के लोगों को देखा
जा सकता है। ये लोग प्रभावशाली स्थितियों में भी हो सकते हैं और लोगों की निगाह में महान भी। लेकिन
इनमें भी यह कमजोरी होती है कि ये दूसरों
की सहायता के बगैर आत्महीनता के भँवर में फंसे रहते हैं और तब तक फंसे रहेंगे जब तक इन्हें संबल देने
वाला कोई मिल नहीं जाए।
इनमें कई सारे लोग ऎसे भी होते हैं जो अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए ऎसे लोगों को साथ रखते
हैं जो उनके काम बैकडोर से, बिना किसी को भनक पड़े आसानी से करने में मददगार साबित हों।
यही वजह होती है कि अयोग्य और नाकारा या चतुर लोगों से
मिलने वाले फिजूल के प्रोत्साहन की
वजह से समाज की छाती पर ऎसे-ऎसे लोग मूंग दलने लगते हैं जिनका अपना कोई वजूद नहीं होता।
कई क्षेत्रों में बड़े-बड़े लोगों के साथ इस प्रकार की
बैसाखियाँ चलती-फिरती और इनके लिए
काम करती नज़र आती हैं जो अपने आप में कुछ नहीं हुआ करती। मगर बड़े लोगों की बैसाखियाँ भी प्रतिष्ठित मानी
जाती हैं और इस कारण बैसाखियों का वर्चस्व आजकल खूब बढ़ने लगा है।
यों भी बड़े लोगों के पिल्लों से लेकर कुत्ते, भैंसों से लेकर लठैत और
उन्हें हाँकने वाले लोगों को हर
कहीं मजबूरी में ही सही, आदर-सम्मान और
श्रद्धा देनी ही पड़ती है। बात राजधर्म ही हो या दुनियावी किसी भी कर्मयोग की,
या फिर और किसी भी
क्षेत्र की, बैसाखियों का वजूद बढ़ने लगा है।
आजकल तो एक नहीं, बल्कि एक के लिए जाने कितनी बैसाखियां इधर-उधर भागती नज़र आती हैं। इन
बैसाखियों का भी अपना अलग
संसार हो
गया है। लगातार संख्या बढ़ाती बैसाखियों से ही साफ पता चलने लग जाता है कि आदमी कितना निःशक्त होता जा रहा
है।
पहले शारीरिक अक्षमता वाले लोग ही बैसाखियों का सहारा
लिया करते थे, अब इनकी बजाय ऎसे लोग बैसाखियों का सहारा लेने लगे हैं जो मानसिक रूप से भी अशक्त और लाचार हो
चले हैं।
आजकल किसम-किसम की बैसाखियों का नेटवर्क हर कहीं पाँव
पसार रहा है। या यों कहें कि बैसाखियां
ही हैं जो आदमियों को चलाने लगी हैं। बैसाखियों में से कई तो ऎसी हैं जो निःशक्तों की किस्म नहीं देखती बल्कि उस हर हाथ में
जुड़ जाती हैं जो हाथ नरम-गरम और
सुकून देने वाला लगे।
बैसाखियों का अपना कोई ईमान-धरम नहीं होता। आका या आश्रयदाता
के हाथ जहां ले जाएं, वहाँ बढ़ने लगती हैं बैसाखियां। कुछ बैसाखियां
बजती रहकर जयगान भी करती रहती हैं।
ये बैसाखियां भी उन्हीं लोगों को प्रिय लगने लगती हैं
जो अपना जयगान सुनने की कमजोरी से
लदे रहते हैं। बैसाखियां समय के साथ चलती हैं। जब कभी शहदिया स्पर्श न मिले,
तो ये बैसाखियां
ही हैं जो बगावत भी कर लेती हैं और उतर आती
हैं बदचलनी पर।
जो लोग बैसाखियों के भरोसे जीने का दम भरते रहते हैं
उनके लिए ये बैसाखियां ही ले आती हैं
पराभव का पैगाम। एक तो बैसाखियों से घिरे हुओं के आस-पास वे लोग नहीं आ पाते जो सत्य का प्राकट्य करना चाहते
हैं।
दूसरी ओर बैसाखियों के भरोसे जीने वाले लोगों के लिए
बैसाखियाँ ही सर्वोपरि सत्ता होने का
भ्रम हमेशा बनाए रखती हैं। बैसाखियाें के भरोसे रहने वाले लोगों के लिए जीवन का कोई क्षण सुरक्षित नहीं होता
क्योंकि बैसाखियाँ कभी भरोसेमन्द नहीं हुआ करती।
इस बात का पता बैसाखी पसंद लोगों को तब होता है जब उनकी
जीवन यात्रा का कोई अगला पड़ाव शेष
नहीं रहता बल्कि बैसाखियों को साक्षी मानकर उन्हीं के सान्निध्य में दिन और रात गुजारने का ठहराव भरा उबाऊ
समय आ जाता है।
शाश्वत सच और इतिहास तो यही है कि ये बैसाखियाँ ही मौका
पाकर ले डूबती हैं उन लोगों को, जो बैसाखियों को ही सबसे बड़ा हमसफर और मददगार मानते रहे हैं। बैसाखियों से मुक्ति पाने
का साहस न जुटा पाएं या
बैसाखियों
के बगैर न जी पाएं तो कोई बात नहीं, इन बैसाखियों पर नज़र बनाए रखें, कहीं ये ही आपकी-हमारी
लुटिया डुबो न दें।
-डॉ. दीपक आचार्य (9413306077)
बैसाखियों के भरोसे न रहें ये ही ले डूबेंगी कभी
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 10, 2013
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