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पंचमुखी चौक पर खुला पड़ा लेटरबॉक्स |
राकेश सिंह/१२ जुलाई २०११
आयेगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की, सब देखना
हाल मेरे दिल का हो लोगों तब देखना.......
१९७४ में बनी फिल्म ‘दुल्हन’ के इस गाने से ही पता चलता है कि चिट्ठी का आना इन दशकों में कितना महत्त्व रखता था.लाखों वर्ष तक संचार में माध्यमों में एकछत्र राज करने वाली ‘चिट्ठी’ इस २१वीं शताब्दी में अपना अस्तित्व खो चुकी है.एक समय था जब पोस्टमैन को देखते ही लोगों के चेहरे खिल जाते थे कि शायद मेरे भी नाम की कोई चिट्ठी हो, पर अब संचार के अन्य सशक्त माध्यमों के प्रचलित हो जाने से चिट्ठियों का संसार लुट
सा गया है.चिट्ठियों को सबसे बड़ा झटका एक्स और वाई जेनेरेशन की पीढ़ियों ने दिया है जो मोबाइल से बात करने, एसएमएस, ई-मेल और वीडियो चैट की तकनीक पर पूरी तरह निर्भर हो चुके हैं.
सा गया है.चिट्ठियों को सबसे बड़ा झटका एक्स और वाई जेनेरेशन की पीढ़ियों ने दिया है जो मोबाइल से बात करने, एसएमएस, ई-मेल और वीडियो चैट की तकनीक पर पूरी तरह निर्भर हो चुके हैं.


संजय गुप्ता बताते हैं कि पोस्टमैन जब घर की ओर आता दिखता था तो मन में होता था कि शायद बाबूजी की चिट्ठी होगी या फिर कोई एडमिट कार्ड.अब तो एडमिट कार्ड भी नेट से डाऊनलोड करने के ऑप्शन आ चुके हैं.संजय कहते हैं कि बाबूजी का वो पत्र मैनें अभी तक सहेज कर रखा है, जिसमे
उन्होंने लिखा था कि गलत लड़कों से दोस्ती मत करना,वो खुद तो बर्बाद होंगे ही,तुम्हे भी बर्बाद कर देंगे.शायद उनकी यही पंक्ति ने मुझे जिंदगी में सफल बना दिया.अब तो मोबाइल से हुई अधिकांश बातें याद भी नही रहती.
पोस्टमैन रमाकांत राय भी इस मुद्दे पर निराशा जताते हैं. कहते हैं पहले जब किसी की कोई महत्वपूर्ण चिट्ठी आती थी, तो वे अपनी खुशी में हमें भी शामिल करते थे.पर अब वो दौर खत्म हो चला है.जगह-जगह उजड़े ‘लेटरबॉक्स’ इस बात के गवाह हैं कि चिट्ठियों की जरूरत अब शायद किसी को नहीं.
जाने कहाँ गए वो दिन:उजड़ा संसार चिट्ठियों का
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 12, 2011
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chitthi mein samay thahar jata hai...
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