आठ साल के बबलू को उसकी मां सुमिता ने आज अहले सुबह 5 बजे ही जगा दिया है। ना नुकुर करता बबलू अभी और सोना चाहता है। सुमिता उसे याद दिलाती है कि आज 15 अगस्त है। मां की बात सुनते ही बबलू झट से उठ जाता है। उसकी नींद 15 अगस्त का नाम सुनते ही छु-मंतर हो गई है। आधे घंटे में बबलू तैयार होकर मां के साथ अपने छोटे से तंबुनुमा घर से बाहर निकल आता है। बगल के स्कूल में सारें जहां से अच्छा... गीत बज रहा है। बबलू को यह सब बहुत अच्छा लगता है। तभी सामने के घर से जुम्मन चाचा अपने बेटे फारूक के साथ निकलते हैं। चाचा अपने हाथ में थामें झोले को खोलते हैं जिसमें सैकड़ों छोटे-छोटे प्लास्टिक के तिरंगे झंडे हैं।
रोज की जिंदगी से इतर आज का दिन बबलू के लिए खास है। आज उसे ट्रैफिक पर हाथ फैलाने की बजाय लोगों को झंडा बेचना है। वह और उसकी मां पिछले कई दिनों से इस दिन के लिए पैसें जमा कर रहे थें, ताकि झंडे खरीदकर वह उन्हें सडकों पर बेच सके। आज कमाई ज्यादा होगी। बबलू की मां ने आज दोपहर उसे खीर खिलाने का वादा किया है।
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करीब साढ़े तीन घंटे बाद, सड़क पर भीड़ अब कम हो चली है। सुमिता, बबलू से कहती है कि चल अब शायद कोई नहीं खरीदने वाला, घर चलते हैं। बबलू के हाथ में एक झंडा बचा हुआ है वह उसे बेच कर जाने की जिद कर रहा है। मां उसके जिद के आगे लाचार है, तभी सामने से एक युवा दंपत्ति की गाड़ी ट्रैफिक पर रूकती है। बबलू अपनी मासूम आवाज में झंडे खरीदने को कहता है। इस तरह उसका आखिरी झंडा भी बिक गया। वह कूदते हुए मां को आखिरी झंडे के पैसे दिखाता है और घर चलने के लिए कहता है।
घर पर चाचा और फारूक अच्छी कमाई होने को ले उत्साहित हैं। मां खीर बना रही है। बबलू और फारूक बचे हुए कुछ झंडों से आजादी-आजादी खेल रहे हैं। दोनों सारे जहां से अच्छा... टूटे-फूटे लफ्जों में गा रहे हैं। खीर बन गया है। सुमिता बबलू को खीर परोसती है। खीर की खुशबु से बबलू का चेहरा खिला हुआ है। सुमिता खीर खा रहे बबलू को एकटक देख रही है। अचानक उसकी आंखों से आंसूओं की धारा बह निकलती है। उसका मन आज वापस गांव जाने को कर रहा है।
आज सुबह स्कूली बच्चों को देख सुमिता को एक साल पहले गांव में अपने जीवन की याद आ गयी, जब वह 15 अगस्त को सुबह उठ बबलू को पड़ोस के सरकरी स्कूल के लिए तैयार करती थी। पर आज कुछ भी वैसा नहीं है। गांव के जिस जमीन पर वह काम करती थी उसे सरकार ने अधिग्रहित कर लिया है। वहां अब बड़े-बड़े मकान बनने हैं। उसका पति उन्हें छोड़ विदेश कमाने
गया है। दो साल हो गए, उसकी कोई खोज-खबर नहीं है। गांव वाले कहते हैं कि वो किसी दुर्घटना में मर गया है, लेकिन सुमिता यह मानने को तैयार नहीं है। गांव वालों के उलाहने से परेशान सुमिता, बबलू को ले पास के शहर आ गई है... काफी कोशिशों के बाद भी काम न मिल पाने के कारण वह सड़को पर हाथ फैलाने के लिए मजबूर है।....
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बबलू के आवाज लगाने पर सुमिता का ध्यान टूटा। बबलू खीर खत्म कर चुका है। वह मां से उसके रोने की वजह पूछता है। सुमिता कुछ नहीं बोलती है, बस अपने आंचल से आंसु पोंछते हुए बबलू को अपने सीने से लगा लेती है। मां के आंचल की गर्मी में बबलू अब सो चुका है और सुमिता दूर कहीं शून्य को निहार रही है।....
--स्वप्नल सोनल, स्पेशल डेस्क,एडिटोरियल, राजस्थान पत्रिका, जयपुर.
आज़ादी की खीर
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 17, 2011
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