
आज बेटियाँ बचाने की बातें तो बहुत से लोग करते हैं, पर उनमें से कई सफेदपोशों को हम जानते हैं जिन्होंने न सिर्फ बेटों की शादियों में बेटियों के पिता की मजबूरी का फायदा उठाकर भारी-भरकम दहेज़ माँगा है बल्कि बेटों की चाहत में अल्ट्रासाउंड करवा कर पत्नी का गर्भपात भी करवा चुके हैं. क्या ऐसे लोगों को बेटियों की अच्छाइयों पर बोलने का अधिकार बचता है? शायद नहीं. मूल समस्या हमारे-आपके मन में है, समाज के ढर्रे (बेहूदे) पर ही हम अपनी मानसिकता को बदल लेते हैं. तो फिर कैसे बचेगी बेटियां? क्या फेसबुक पर बेटियों का गुणगान करने वाली तस्वीरों को शेयर करने से बच जायेंगी बेटियां? तेज़ाब से झुलसी किसी लड़की से यदि कोई युवक शादी करता है तो हम उस खबर को शेयर कर युवक को महान बता कर अपने अच्छे विचार प्रदर्शित करते हैं. पर वैसा करना तो दूर की बात, अपनी शादी के लिए गोरी और स्मार्ट लड़की खोजते हैं. क्या आपको इतनी भी हिम्मत है कि आपकी शादी के वक्त दहेज़ के लिए लपलपाती अपने पिता की जीभ को भीतर करने कहें? यदि नहीं तो आप मत कीजिए सिद्धांत की बातें, क्योंकि आपकी करनी और कथनी में बहुत बड़ा फर्क है. क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि दहेज़ देकर कंगाल बने पिताओं को देखकर भी कई पिता मादा भ्रूण हत्या की सोच बैठते हैं. और जो संपन्न हैं उनमें से भी कई ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि आर्थिक और सामाजिक रूप से वे अपने को लोगों के सामने मजबूत दिखा सकें. बेटियों को बचाने से पहले अपनी मंशा तो साफ़ कीजिए जनाब!
समस्याओं की जड़ों को कुरेद कर देखिये: भारतवर्ष जैसे देश जहाँ आदि काल में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ यानि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है की बातें कही जाती थी वहां आज
हम-आप बेटियों के जन्म पर मातम मनाते हैं. मध्यकालीन इतिहास में यदि बेटियों को मारने और सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ व्याप्त थी तो उस समय की एक भी परिस्थितियां आज नहीं है और अधिकाँश विषयों पर सोच में भी काफी बदलाव का दावा हम करते हैं. तो क्यों नहीं सृष्टि की निर्मात्री पर भी हमारी सोच उन्नत हो पाती है?

गर्भ से शुरू हो जाता है भेदभाव: आज भी अधिकाँश संपन्न परिवारों में बेटों की चाहत न सिर्फ परिवार के पुरुष सदस्यों में बल्कि महिलाओं में भी रहती है. बच्चों के जन्म के पश्चात जहाँ अच्छे-अच्छे परिवार में खुशियों में अंतर दिखाई देता है वहीँ कई परिवारों में बेटी के जन्म के बाद मातमी सन्नाटा छा जाता है. कई लोग लेबोरेटरी में अल्ट्रासाउंड करवा कर पता कर लेते हैं कि गर्भस्थ शिशु बेटा या है बेटी और यदि बेटी होती है तो अबार्शन. यानि हत्या, ये जानते हुए भी कि जिस माँ की कोख से उसने जन्म लिया है वो भी सबसे पहले एक बेटी थी. ये जानते हुए

ग्रामीण परिवेश में कई घरों में आज भी यदि बेटी हो गई तो उसे अड़ोस-पड़ोस की उस बुढ़िया के हवाले कर दिया जाता है जो नन्हीं सी जान का गला दबाने से लेकर उसे ‘खैनी चटाने’ में उस्ताद मानी जाती है. यदि कहा जाय कि पूरे हालात की जिम्मेवार पुरुषों के साथ कई जगह महिलायें भी होती है तो गलत नहीं होगा. हमें इतनी भी समझ नहीं है कि बेटियों को न बचाकर हम खुद अपना अस्तित्व ही मिटाने चले हैं.
समस्याएं बेटियों के गर्भ में आने और जन्म के साथ ही हम उत्पन्न करते हैं. ‘सेव डॉटर, सेव फ्यूचर’ के अगले अंकों में और कहाँ हैं समस्याएं और कैसे हो निदान? पर चाहते हैं कि भविष्य बचे तो बचाइए बेटियों को जो कभी मां, कभी बहन, कभी पत्नी और न जाने और कितने रूपों में संसार की सुन्दरता को कायम रखी हुई है. (क्रमश:)
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सेव डॉटर, सेव फ्यूचर (भाग-1): बेटियों को बचाने की बात करने से पहले अपनी मंशा तो साफ़ कीजिए जनाब!
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
March 24, 2016
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