सक्सेस स्टोरी (2): कभी कचरा बीनते थे मधेपुरा की गंदगी में और जूठा प्लेट तक उठाया. आज हैं एक बड़े होटल के मालिक और रहते हैं आलिशान घर में
यह सच्ची कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने अपना सफ़र शून्य से शुरू किया और जिन्दगी के उन तमाम कष्टों को झेला है जिसकी कल्पना आज इनकी हैसियत देखकर करना मुश्किल है. ये कहानी है मधेपुरा के एक होटल व्यवसायी की जिन्होंने अपने जीवन के आठ साल की उम्र तक ठीक से खाना नहीं खाया, पर आज इनकी एक बेटी ग्रैजुएशन में ईंग्लिश में टॉपर हुई तो दूसरी कर रही कोटा में मेडिकल की तैयारी.
मधेपुरा जिला मुख्यालय के मेन रोड में अवस्थित वैष्णव अमृत होटल के मालिक रामानंद साह उन युवाओं के लिए एक मिसाल की तरह साबित हो सकते हैं जो जिन्दगी को भंवर समझ कर इस उलझन में हैं कि व्यवसाय के क्षेत्र में कैसे सफल हुआ जाय.
संघर्ष का चरम रहा जिन्दगी में: वर्ष 1969 में मधेपुरा के भिरखी में एक होमगार्ड पिता बद्री साह के घर में जन्म लेने के बाद जब रामानंद ने होश संभाला तो पाया कि पिता काफी गुस्सैल स्वभाव के हैं और बात-बात पर बच्चों को बेरहमी से पीटते हैं. घर की जिम्मेवारी सँभालने में पिता की कोई रुचि नहीं थी और घर में सही ढंग से खाना भी मुश्किल से ही बन पाता था. दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख रामानंद की इच्छा पढ़ाई करने की हुई, पर घर का जरा भी सहयोग नहीं मिला. पर जितना समझ में आया इन्होने किया और मधेपुरा की सड़कों और गलियों में कचरा बीनने लगे और उसे शाम में कबाडखाना पहुंचाते थे. रामानंद बताते हैं कि कबाड़ वाले उसे 45 पैसे रोज देते थे जिससे उन्होंने तीसरी कक्षा तक स्कूल की पढ़ाई जारी रखी. पर शायद किस्मत को ये बात भी पसंद नहीं आई और जिन्दगी की गाड़ी इस मुश्किल तरीके से भी नहीं चल पाई. रामानंद साह की माँ ने उस वक्त रामानंद का साथ छोड़ दिया जब रामानंद की उम्र सिर्फ 8 साल थी. लकवे से हुए माँ की मौत ने जहाँ रामानंद को तोड़ दिया वहीँ पिता ने सबकुछ बेचकर दूसरी शादी कर ली और तब रामानंद अचानक से पूरी तरह फूटपाथ पर आ गए.
जीवन चलाने के लिए अब रामानंद ने मधेपुरा के स्टेशन के पास खुले एक होटल में काम करना शुरू किया. सुबह पांच बजे से रात ग्यारह बजे तक काम करने पर आधा पेट खाना मिलने लगा. पर मासूम हाथों से कभी उठाते-धोते वक्त प्लेट भी टूट जाते थे और मालिक की मार लग जाती थी. एक बार जब हिम्मत कर रामानंद ने मालिक से हिसाब के पैसे मांगे तो टूटे प्लेट में सारे पैसे काट कर मालिक ने थप्पड़ मारकर वहां से भी भगा दिया. वहां से काम छूटने के बाद रामानंद का अगला ठिकाना 1981 में डाक बंगला रोड में स्थित एक भूंजा की दुकान हुआ. होटल की 365 दिन और 18 घंटे रोज की नौकरी से परेशान रामानंद को यहाँ रविवार को छुट्टी मिल जाती थी और काम के एवज में दो रूपये रोज दिए जाते थे. (क्रमश:)
( रिपोर्ट: राकेश सिंह)
[अगला भाग यहाँ पढ़ सकते हैं: सक्सेस स्टोरी (2): संघर्ष में नहीं देता कोई साथ, पर धैर्य है आपका सच्चा साथी: छोटी चाय दूकान से बड़े होटल और घर का संघर्ष कहता है कुछ ख़ास ]
मधेपुरा जिला मुख्यालय के मेन रोड में अवस्थित वैष्णव अमृत होटल के मालिक रामानंद साह उन युवाओं के लिए एक मिसाल की तरह साबित हो सकते हैं जो जिन्दगी को भंवर समझ कर इस उलझन में हैं कि व्यवसाय के क्षेत्र में कैसे सफल हुआ जाय.
संघर्ष का चरम रहा जिन्दगी में: वर्ष 1969 में मधेपुरा के भिरखी में एक होमगार्ड पिता बद्री साह के घर में जन्म लेने के बाद जब रामानंद ने होश संभाला तो पाया कि पिता काफी गुस्सैल स्वभाव के हैं और बात-बात पर बच्चों को बेरहमी से पीटते हैं. घर की जिम्मेवारी सँभालने में पिता की कोई रुचि नहीं थी और घर में सही ढंग से खाना भी मुश्किल से ही बन पाता था. दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख रामानंद की इच्छा पढ़ाई करने की हुई, पर घर का जरा भी सहयोग नहीं मिला. पर जितना समझ में आया इन्होने किया और मधेपुरा की सड़कों और गलियों में कचरा बीनने लगे और उसे शाम में कबाडखाना पहुंचाते थे. रामानंद बताते हैं कि कबाड़ वाले उसे 45 पैसे रोज देते थे जिससे उन्होंने तीसरी कक्षा तक स्कूल की पढ़ाई जारी रखी. पर शायद किस्मत को ये बात भी पसंद नहीं आई और जिन्दगी की गाड़ी इस मुश्किल तरीके से भी नहीं चल पाई. रामानंद साह की माँ ने उस वक्त रामानंद का साथ छोड़ दिया जब रामानंद की उम्र सिर्फ 8 साल थी. लकवे से हुए माँ की मौत ने जहाँ रामानंद को तोड़ दिया वहीँ पिता ने सबकुछ बेचकर दूसरी शादी कर ली और तब रामानंद अचानक से पूरी तरह फूटपाथ पर आ गए.
जीवन चलाने के लिए अब रामानंद ने मधेपुरा के स्टेशन के पास खुले एक होटल में काम करना शुरू किया. सुबह पांच बजे से रात ग्यारह बजे तक काम करने पर आधा पेट खाना मिलने लगा. पर मासूम हाथों से कभी उठाते-धोते वक्त प्लेट भी टूट जाते थे और मालिक की मार लग जाती थी. एक बार जब हिम्मत कर रामानंद ने मालिक से हिसाब के पैसे मांगे तो टूटे प्लेट में सारे पैसे काट कर मालिक ने थप्पड़ मारकर वहां से भी भगा दिया. वहां से काम छूटने के बाद रामानंद का अगला ठिकाना 1981 में डाक बंगला रोड में स्थित एक भूंजा की दुकान हुआ. होटल की 365 दिन और 18 घंटे रोज की नौकरी से परेशान रामानंद को यहाँ रविवार को छुट्टी मिल जाती थी और काम के एवज में दो रूपये रोज दिए जाते थे. (क्रमश:)
( रिपोर्ट: राकेश सिंह)
[अगला भाग यहाँ पढ़ सकते हैं: सक्सेस स्टोरी (2): संघर्ष में नहीं देता कोई साथ, पर धैर्य है आपका सच्चा साथी: छोटी चाय दूकान से बड़े होटल और घर का संघर्ष कहता है कुछ ख़ास ]
सक्सेस स्टोरी (2): कभी कचरा बीनते थे मधेपुरा की गंदगी में और जूठा प्लेट तक उठाया. आज हैं एक बड़े होटल के मालिक और रहते हैं आलिशान घर में
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
September 07, 2015
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