
देश की राजधानी का सम्मानजनक
स्थान रखने वाली दिल्ली
में आये दिन बलात्कार की घटनाएँ होती हैं. हाल ही में नागालैंड के दीमापुर में
भी घटी ऐसी ही घटना में भीड़ के अनियंत्रित क्रोध ने बलात्कारी की जान ही ले ली. बदायूं-बरेली में दो बहनों के साथ हुए कुकृत्य की बात
भी दर्दनाक़ है. शायद इन्हीं सभी कारणों से हरियाणा और
राजस्थान में लोग
बेटियों को जन्म देना ही नहीं चाहते. हम ऐसे लोगों की भर्त्सना करते हैं पर क्या कभी हमने इस
तथ्य के पीछे जाने की कोशिश की है कि आखिर ऐसी कौन सी वजहें हैं जिसने माता-
पिता को पुत्री के जन्म से भयभीत होने के लिए बाध्य कर दिया है. क्या हम ऐसे
समाज का निर्माण करने की दिशा में उन्मुख हैं जहाँ बेटियाँ एक सुरक्षित जीवन जी
सके. अगर नहीं तो फिर ये श्रृंखला चलती ही रहेगी. आज समाज इतना क्लिष्ट बन चुका है फिर ऐसे में
बेटियों को जन्म देना उन्हें इंसानी भेड़ियों से महफूज़ रखना
काफी जोखिम भरा काम माना जाता
है तो इसमें गलत क्या है?

प्रधान
मंत्री जी ने कहा और अच्छी बात कहा- ''बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ''.
पर बेटी बचाने के लिए
जो स्वस्थ मानसिकता चाहिए वो तभी विकसित हो सकेगी जब समाज में
सुरक्षित वातावरण बन पायेगा बेटियों के लिए. ऊँची शिक्षा पानी है तो घर की चहारदिवारी
से बाहर निकलेंगी
बेटियाँ . अब ऐसे में उसके मान और सम्मान का कोई हनन न करे इस बात की जवाबदेही कौन लेगा?
जाहिर है इस बात की ज़िम्मेदारी हर उस व्यक्ति के काँधे
पर है, जो समाज में स्त्रियों
को
सम्मान जनक दर्जा दिलवाने के लिए गंभीर है, कृत संकल्प है. ''नारी देवी है'', यह बात समाज में सिर्फ साहित्य के माध्यम से या
मंचों पर बड़े-बड़े भाषण देकर नहीं कहना होगा बल्कि व्यावहारिक रूप से अपने घर में
अपनाना होगा. अगर हम बेटियों की इज्जत करते हैं तो उनके व्यक्तित्व का भी
हम सम्मान करें. बेटियों पर बिना वजह पाबन्दी ना लगाएँ. उन्हें परिवार
की इज्जत से जोड़ कर देखें पर इसकी आड़ में उसे पढ़ने और आगे बढ़ने से ना
रोकें. अब आप ही बताइये, पुत्री के प्रति ऐसा प्रेम भला किस काम का जो उनके व्यक्तित्व को कुंठित कर दे,
उन्हें घर की चहारदिवारी में कैद
करके रख दे .

एक विचारणीय बात यह भी है कि जब भी बेटियों की
सुरक्षा की बात करें तो बेटियों से ज्यादा बेटों को इस विषय पर संवेदन शील बनाएँ.
लड़कियों को लड़कों की तरह बहादुर बनाने के लिए प्रेरित करें तो लड़कों को भी लड़कियों की तरह कोमल
प्रवृत्ति और संवेदन शील, सहिष्णु
होने की शिक्षा दें. अमूमन होता उलटा है. हम अपराध की शिकार हुई बालिकाओं को तो
नसीहतें देते नहीं थकते पर अपराध करने वाले लड़कों को कुछ भी कहना या सिखाना भूल जाते हैं. नतीजा आये
दिन छेड़खानी और बलात्कार की घटनाएँ सामने आती हैं. कुछ दिनों के चिल्ल-पौं और
चीख पुकार के बाद सब शांत हो जाता है.
दूसरी ओर स्त्रियों और बालिकाओं को भी अपनी
आत्मिक शक्ति मज़बूत करनी होगी. अपने आत्मा के अंदर भ्रमण करना होगा. अपनी
शक्ति और अस्मिता की रक्षा खुद करनी होगी. इसके लिए आवश्यक है कि हर बालिका
अपने चारों ओर आत्मविश्वास का एक ढाल बनाकर रखे ताकि कोई भी उसे सरलता से या हल्के
में लेने की कुत्सित कोशिश ना कर सके. बालिकाओं के व्यक्तित्व में मजबूती,
विचारों में सजगता और भावनाओं में
दृढ़ता का होना आवश्यक है. गलत दिशा में जब भावनाओं का झुकाव हो जाता है तभी
स्त्रियाँ दुष्चक्र का शिकार होती हैं. कई बार उनके द्वारा ही लिए गए गलत निर्णय से उसका
आत्मसम्मान दाँव पर लग जाता है .
दरअसल स्त्रियों पर हमला एक कानूनी समस्या नहीं बल्कि मानसिक समस्या है. इस का
उपाय यही है कि हम पारिवारिक, सामाजिक
और राजनीतिक हर फ़लक पर औरतों को समान दर्ज़ा दें. उन्हें उनकी योग्यता और प्रतिभा
को निखारने का समुचित अवसर प्रदान करें. समाज हमसे बना है, आपसे बना है. खोल दें दिमाग की बंद खिड़कियाँ और एक स्वस्थ सोच और विचार की हवा
घरों में आने दें, जिसमें
हमारे आँगन की बेटियाँ भी स्वयं को आज़ाद कह सके.
अपने हिस्से का आसमान गढ़ती बेटियाँ
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
April 03, 2015
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