शाम के 5 बज रहे हैं, हॉल में अब गिने-चुने लोग ही नजर आ रहे हैं। बचे हुए लोग अब अपनी प्रदर्शनी समेटनेमें लगे हुए हैं। नरेन्द्र शर्मा भी इनमें से एक हैं। नरेन्द्र चुपचाप एकटक लगाकर अपनी समेटी हुई किताबों को देख रहें हैं।
आज यहॉ एक पुस्तक प्रदर्शनी लगी थी, जहॉ दिल्ली शहर के कुल 11 अधिकृत विक्रेता अपने संस्था की छपी किताबें लेकर आये थे। इनमें से नरेन्द्र एक हैं। नरेन्द्र उठते हैं और बुझे हुए मन से अपनी किताबों केा ऑटो में रखते हैं। पिछले कुछ 25 सालों से नरेन्द्र इस व्यवसाय से जुड़े हैं। पहले वो एक साधारण पुस्तक विक्रेता हुआ करते थे, लेकिन अब 16 सालों से उन्होंने अधिकृत विक्रेता के रूप में व्यवसाय किया है। दिखने में नरेन्द्र एक मध्य वर्गीय समृ़द्ध नजर आते हैं, पर आज वो उदास हैं।
नरेन्द्र के साथ ही पुस्तक प्रदर्शनी में आये उनके साथी शैलेन्द्र पाण्डेय बताते हैं कि आज सुबह से ही वो दोनों अपने स्टॉल पर लगातार बने हुए हैं। दिन भर लोगों की काफी भीड़ प्रदर्शनी में आयी। उनके स्टॉल को भी लोगों ने उत्साह से लिया और किताबों के बारे में जानकारीयॉ ली। लेकिन सुबह से लेकर अबतक कुल 12 किताबें ही बिक पाईं है। शैलेन्द्र को लगता है कि नरेन्द्र की उदासी शायद इसी वजह से है।
शैलेन्द्र जो पिछले 10 सालों से व्यवसाय में नरेन्द्र की सहायता कर रहे हैं, बताते हैं कि अब पुस्तक प्रदर्शनियों में पहले जैसा उत्साह नहीं दिखता है। इन प्रदर्शनियों में भीड़ तो आती है पर खरीद-फरोक्त बिल्कुल नहीं के बराबर रह गयी है। आज से 5 साल पहले तक इस तरह की प्रदर्शनियों में जहॉ दिनभर में 100 से ज्यादा किताबें बिकती थीं, वो अब दहाई या ईकाई के अंको तक सिमट कर रह गई है। प्रदर्शनी में आने वाली भीड़ अब किताबें देखकर वापस चली जाती हैं।
किताबों के प्रति पाठकों के इस घटते रूझान के बारे में शैलेन्द्र बताते हैं कि अब पाठक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा कंप्यूटर और इंटरनेट पर उपलब्ध ई-बुक की ओंर चला गया है। कोई भी अब 500 रू0 देकर किताब नहीं खरीदना चाहता क्योंकि वही किताब उसे वेब पर 2 से 3 क्लिक में मुफ्त में मिल जाती हैं। शैलेन्द्र बताते हैं कि नरेन्द्र की मूल चिंता व्यवसाय में घटता मुनाफा ही है जो उन्हें लगातार परेशान करता है।
इंटरनेट के युग में आज इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पाठकों का रूझान मुद्रित यानी छपी हुई किताबों के प्रति कम हुआ है। बदलते समय के साथ कंप्यूटर और इंटरनेट ने हमारे सहयोगी और मित्र के साथ-साथ अब एक शिक्षक की भूमिका भी निभानी शुरू कर दी है। आज गूगल ई-बुक के अलावा सैकड़ो ऐसे वेब पोर्टल हैं जो ई-बुक की सुविधा देते है। इनमें से कई मुफ्त है तो कईयों के लिए थोड़े पैसे भी देने पड़ते हैं। हाल ही में छपे एक रिपोर्ट के आधार पर ई-बुक से संबंधित लगभग हर पोर्टल से साप्ताहिक डाउनलोड हो रहे कंटेंट की संख्या 10 हजार है। महज् 12 महिने पहले शुरू हुए एक पोर्टल पर अब तक डेढ़ करोड़ विजिटर आ चुके हैं। इस वेबसाईट से पिछले माह कुल 42 हजार ५ सौ 38 ई-बुक डाउनलोड हुए हैं।
ई-बुक के प्रति पाठकों के बढते रूझान का एक सबसे बड़ा कारण वेब पर मिनटों में विषय से संबंधित सैंकड़ो संदर्भो तक अपनी पहुँच बनाना है। इसके अलावा लैपटॉप, ई-बुक रीडर, मोबाईल पीडीएफ आदि उपकरणों के माध्यम से राह चलते भी इंटरनेट तक पहुँच बनाना संभव हो पाया है। इसके अलावा ये उपकरण किताबों के मुकाबले सुगम और रखरखाव के
लिए भी बेहतर विकल्प हैं।
लेकिन इन सब के बीच जो एक दूसरा पक्ष उभरता है वो यह कि तकनीक के इस दौड़ में कहीं न कहीं किताबें दम तोड़ रही हैं। हालांकि आज भी इंटरनेट की पहुँच से लाखों लोग दूर हैं, पर अब 2जी और 3जी तकनीक के आने से निश्चित तौर पर इसका दायरा बढेगा। ऐसे में सवाल उठता है कि, क्या आने वाले समय में किताबों का दौड़ खत्म हो जायेगा?
क्या फुर्सत के पलों में बिस्तर पर लेटकर किताबों के पन्ने पलटना बीती बात हो जायेगी?
क्या फुर्सत के पलों में बिस्तर पर लेटकर किताबों के पन्ने पलटना बीती बात हो जायेगी?
स्वप्नल सोनल,भारतीय जनसंचार संस्थान,दिल्ली
पुस्तकों का बिखरता संसार
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
January 21, 2011
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