पैथोलॉजिस्ट जहाँ मुझे हजारों रूपये महीने की आमदनी
सिर्फ उसके लैब पेशेंट को भेजने के बदले दे रहा था, वहीं बाजार में चल रहे
पैथोलॉजी के बारे में मुझे बहुत सी ऐसी जानकारियाँ मिली जो चौंकाने वाली थी.
शहर में
शायद ही कोई डिग्रीधारी पैथोलॉजिस्ट था, पैथोलॉजी चलाने के लिए जो डिग्री (MD, Pathology) चाहिए वो किसी के पास नहीं थी.
सारे टेक्निशियन थे. हस्ताक्षर की जगह पर कुछ भी घुमा कर घस देते थे. रिपोर्ट
पर नीचे वे लिख देते थे कि अलग-अलग लैब में रिपोर्ट अलग-अलग हो सकते हैं. वास्तव
में मैं किसी पेशेंट को तीन-चार टेस्ट लिख देता था और पैथोलोजिस्ट को सूचना भेज
देता था कि सिर्फ अमुक टेस्ट ही पॉजिटिव लिखना है. इस तरह चारों टेस्ट के कमीशन
मेरे पास आ जाते थे. पर एक बात से मैं थोड़ा चिंतित था कि यदि कोई पेशेंट बिना
डॉक्टर के प्रेस्क्रिप्शन के लैब में टेस्ट कराता था तो जिस टेस्ट के
प्रेस्क्रिप्शन पर लैब वाला सौ रूपये लेता था उस टेस्ट के वो वैसे सिर्फ तीस रूपये
लेता था. मैं सोचता कि ये बात कहीं पेशेंट समझ न जाय कि कमीशन डॉक्टर के पास जाता
है. पर ये बात मेरी समझ में शुरू में ही आ गई थी कि अधिकाँश पेशेंट लाचार तो होते
ही हैं, बेवकूफ भी होते हैं. उन्हें हम पर भरोसा रहता है और हमारा मुख्य पेशा
उन्हें डरा कर उनकी जेब से पैसे निकलवाना होता है. हम उसके विश्वास का खून करते
हैं और बदले में वह मनी और थैंक्स देकर जाता है. हम भले ही अंदर से शैतान होते
हैं, पर वह हमें भगवान समझता है.
इस बात
से मुझे और भी हैरानी होती थी कि जहाँ Dr. Lal Path, Ranbaxy, Thyrocare आदि जैसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लैब में किसी
टेस्ट की जो दर होती उससे भी ज्यादा रेट कुछ न जानने वाला लोकल लैब वाला आराम से
वसूल करता है और वो ऐसा हमारे बल पर करता है.
दवा कंपनियों ने बनाया मुझे
करोड़पति और अय्यास: असली जिंदगी तो मेरी तब शुरू हुई जब कई मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स ने मुझे
उनकी कंपनियों की दवा लिखने के बदले कुछ शानदार ऑफर्स पेश किये. दवा के अधिकतम
खुदरा मूल्य (MRP) पर सरकार का नियंत्रण
नहीं होने की वजह से एक केमिस्ट और होलसेलर के बीच 300-350% मुनाफा होता है और इस
बीच में एक बड़ा शेयर हमें भी मिल जाता है यदि उसकी मार्केटिंग हम जमकर कर दें. ये
अलग बात है कि कई कंपनियों के अधिकाँश दवा असरदार नहीं होते थे, पर कमीशन इतना
असरदार था कि हमें पेशेंट के जल्दी ठीक होने कि कोई चिंता नहीं रहने लगी. हम सोचते
कि अच्छा ही है, बीमारी थोड़ी और बढ़ जाए और ऑपरेशन आदि करने की नौबत आ जाये तो हम
उन्हें जान का भय दिखाकर और पैसे निकलवा सकेंगे. कभी-कभी सोचता था कि एक राहजनी
करने वाले और मेरे जैसे डॉक्टर में कितना फर्क है, तो ईमानदारी से मन में उत्तर
आता कि वे अपराध करने के बाद प्लॉट से भाग जाते हैं और हम ‘व्हाईट कॉलर क्रिमिनल्स’ अपनी जगह पर जमे रहकर रोज ही
दर्जनों को लूटते हैं. (क्रमश:)
(अगले अंक में: दवा कंपनियों ने भर दिया मेरे घर
में इम्पोर्टेड सामान और कराया विदेश भ्रमण)
(डिस्क्लेमर: यह रिपोर्ट भले ही वास्तविकता के करीब हो
पर पूरी तरह काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई लेना-देना
नहीं है.)
एक डॉक्टर की आत्मकथा (भाग-2): दवा कंपनियों ने मुझे सिर्फ धनवान ही नहीं, अय्यास भी बना दिया
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
June 17, 2014
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