प्रगतिशील लेखक संघ का 15 वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन

प्रलेस का 15 वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन: सांप्रदायिकता को बेनकाब करने की जरूरत
 इस दिल्ली अधिवेशन में:
    - पूँजीवाद, जातिवाद व सांप्रदायिकता देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती !
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लोकतांत्रिक उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष रचनाशील संगठनों का प्रगतिवादी साझा मंच एक ऐतिहासिक जरूरत !
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मिश्र, जापान, उज़बेकिस्तान व पाकिस्तानी प्रतिनिधियों सहित देश के चार सौ लेखकों की हिस्सेदारी !

    ‘कलम शांति और सद्भाव के लिएइस आदर्श वाक्य के साथ देश की राजधानी स्थित दिल्ली विश्वविधालय के नार्थ कैंपस के केन्द्रिय सभागार में तीन दिनों ( 12,13 14 अप्रैल 2012.) तक चले प्रगतिशील लेखक संध के 75 वें राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान लेखक व रंगकर्मियों की जोरदार उपस्थिति ने सम्मेलन को ऐतिहासिक व यादगार बना दिया। डा. नामवर सिंह, डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, डा. मैनेजर पाण्डेय, डा. अली जावेद, डा. चौथी राम यादव, डा. असगर अली इंजीनियर, राजेन्द्र राजन, गितेश शर्मा, अमिताभ चक्रवर्ती, संजय श्रीवास्तव, विनीत तिवारी, डा. हेलमी हदीदी ( मिश्र), बाबर अयाज ( पाकिस्तान ), प्रो. हागा आकियो (जापान), डा. मुहय्या अब्दुरहमान ( उज़बेकिस्तान), डा. पुन्नीलन - तमिलनाडुसतीश कालसेकर- महाराष्ट्र सहित देश के तमाम प्रान्तों से आये हिन्दी-उर्दू व स्थानीय भाषा के लेखक, कवि, आलोचक-साहित्यकार व रंगकर्मियों की बड़ी जमात ने उपस्थित बुद्धिजीवियों व रचनाकारों में नये उत्साह का संचार किया। डा. अली जावेद ने कहा भी - कि आज देश के तकरीबन हर राज्य में हमारी इकाईयाँ सक्रिय हैं और हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि प्रलेस एक मात्र ऐसा संगठन है जो तमाम भारतीय भाषाओं में एक आन्दोलन के रूप में सिर्फ मौजूद ही नहीं बल्कि सक्रिय भी है। इस राष्ट्रीय अधिवेशन को बेशक अंतराष्ट्रीय आयोजन का सम्मान दिया जा सकता है।
    तीन दिवसीय इस आयोजन के प्रथम दिन-प्रथम सत्र का आगाज़ अभिज्ञान नाट्य मंच द्वारा फ़ैज अहमद फ़ैज की नज़्म के साथ हुआ। इप्टा के महासचिव जीतेन्द्र रघुवंशी, जनवादी लेखक संघ के महासचिव मुरली मनोहर जोशी व जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण के शुभकामना संदेश  में तमाम प्रगतिशील संगठनों की एकजुटता एवं साझा रूप से आज की चुनौतियों का सामना करने की बात कही गयी। पाकिस्तान से आये बाबर अयाज ने इंसानी जीवन को बेहतर बनाने के लिए अमन की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने पाकिस्तान प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से शुभकामनाएँ व्यक्त की। डा. असगर अली इंजीनियर ने अंग्रेजी में वक्तव्य देते हुए अमरीकी साम्राज्यवाद के वैश्विक प्रभाव की चर्चा की तथा साम्प्रदायिक आतंकवाद से धरती को बचाने की अपील की। डा. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि हमारी समस्याएँ विचित्र  ढंग से बढ़ रही है। आज अमरीका फासिज्म का निर्यात कर रहा है। पूंजी का भूमंडलीयकरण हो रहा है, भाषा बदलती जा रही है। अब कर्जको फाइनांस के रूप में बोला जाता है। प्रो. हागा आकियो (जापान) ने हिंदी में बोलते हुए अपने देश में जलजले से हुए तबाही का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया। इस सत्र के मुख्य अतिथि इजिप्ट से पधारे डा. हेलमी हदीदी ने
सामाजिक न्याय व लोकतंत्र की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि कुछ दिनों से हम देख रहे हैं कि हमारे पड़ोस में क्रांति के नाम पर सैनिक बल प्रयोग किया जा रहा है। क्रांति के नाम पर मध्यवर्गीय युवा को हथियार देकर युनाइटेड स्टेट अपनी नीति लागू करने का मंसूवा पाले है। खाड़ी देशों में बुश के कार्यकाल से हस्तक्षेप प्रारंभ हो गया था, यह सबकुछ लोकतंत्र के नाम पर किया जा रहा है। जनता भूखी है, वह रोटी चाहती है, शिक्षा चाहती है यह देख कर दुख होता है, गाज़ा की आग लगातार सुलग रही है...। समारोह का संचालन करते हुए डा. अली जावेद ने घोषणा की - कि यह कांफ्रेंस डा. कमला प्रसाद को समर्पित है तथा दिल्ली प्रलेस के सचिव अर्जुमन्द आरा ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
    प्रथम दिवस के दूसरे सत्र का शुभारंभ करते हुए डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि हम मौजूदा समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे तो कौन करेगा। उन्होंने कई सवाल उठाये, कहा सरकार विकल्प नहीं देगी तो अतिवाद फैलेगा। श्रीपत जोशी (महाराष्ट्र) ने सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के बदलते चेहरे को रेखांकित किया। गीतेश शर्मा का मानना था कि सामंती ढांचा के लिए अमरीका को गाली देना सही नहीं है, हमें अपने गिरेवां में भी देखना चाहिए। डा. साहिना रिजवी ने कहा कि जिस भाषा में दम है वह कायम रहेगी। कुसुम जैन का मानना था कि पितृ सत्ता के साथ साम्राज्यवादी सत्ता काम करती है।  इस सत्र में केपी रमन व वी मोहनदास ने भी आंग्ल में अपने-अपने विचारों को रखा। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात तमिल लेखक पुन्नीलन ने तमाम विद्वतजनों को शुभकामनाएँ दी। इसी सत्र में साहित्यिक पत्रिका वसुधातथा उम्मीदें शहर की बात सुनोंएवं प्यार के दो-चार पलपुस्तक का लोकार्पण भी किया गया। संध्या सत्र का कवि सम्मेलन विनीत तिवारी के कुशल संचालन में सम्पन्न हुआ। देश के विभिन्न हिस्सों से आये कवियों ने अपनी काव्य-रचना से सत्र को सफल बनाया। कवियों में सर्वश्री शैलेन्द्र शैली, दिनेश प्रियमल, तरुण गुहा नियोगी, मूलचन्द्र सोनकर, वीआर त्रिपाठी रूद्र’, पूनम सिंह, सतीस कालसेकर, सुधा त्रिपाठी, संदीप अवस्थी, कुसुम जैन, जवाहर लाल कौल, सुरेन्द्र सिंह, दिनेश श्रीवास्तव, देवनारायण देव, रवि श्रीवास्तव, डा. अमोल राय, अनिल पतंग, श्रीमती मुकुल लाल, सरोज खान बातिश, के एल सोनकर, रमेश ऋतंभर एवं अरविन्द श्रीवास्तव सहित पचास कवियों की पुरजोर भागीदारी दर्ज की गयी।
    सम्मेलन के दूसरे दिन सतीश कालसेकर, डा. मोहय्या अब्दुरहमान (ताशकंद), डा. असगर अली इंजीनियर की उपस्थिति एवं विनीत तिवारी के संचालन में श्री आनन्द शुक्ल, महेश कटारे सुगम, विभूति ना. सिंह, महेन्द्र सिंह, निहार स्नातक, रमाकांत श्रीवास्तव, गंगाराम राजी आदि की पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। अरविन्द श्रीवास्तव का कविता संग्रह राजधानी में एक उज़बेक लड़की’’ ( यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली) का लोकार्पण ताशकंद से आयी डा. मोहय्या अब्दुरहमान, डा. असगर अली इंजीनियर, सतीश कालसेकर एवं डा. चौथी राम यादव ने संयुक्त रूप से किया।  इसी सत्र में दलित, आदिवासी, महिला लेखन विमर्शपर वक्तव्य देते हुए डा. चौथी राम यादव ने कहा कि स्त्री व दलित लेखन के लिए इन्हें कलम क्यों उठाने की जरूरत पड़ी, कभी कबीर व रैदास ने भी कलम उठायी थी। किसी भी क्रांतिकारी विचारधारा को परंपरावदी इसकी धार को कुंद करने का प्रयास करते हैं। हमारी रचनाएँ जितनी भी लोकतांत्रिक रही है उसकी आलोचना अलोकतांत्रिक होती है। कबीर ऐसा व्यक्तित्व है  जो जनवादी सांस्कृतिक विरासत के साथ हमारे सामने खड़ा दिखता है। हिन्दुस्तान में जातिवादी समस्या जटिल हो चुकी है, यह सामंती व्यवस्था का दुष्परिणाम है।
    प्रसिद्ध आलोचक डा. मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि लोकतंत्र व राष्ट्रीय चेतना को बचाने के लिए जाति व्यवस्था से लड़ने की जरूरत है। उन्होंने आगे कहा कि ज्ञान के विकास की दो प्रक्रिया हैपहला एकान्त साधना  तथा दूसरा जन आन्दोलन। स्त्रियों की हत्या के चार प्रसंग हैं पहला  पैदा होने से पहले इसे मारा जा रहा, दूसरा प्रेम करने के लिए स्त्रियों को मारा जा रहा, यूपी व हरियाणा आदि राज्यों में। तीसरा विवाह के बाद हत्या तथा चैथा जहाँ हत्या की सुविधा नहीं होती वहाँ स्त्रियों को अत्महत्या के लिए मजबूर किया जाता है... हाल के वर्षों मे पूंजीवाद के विस्तार के साथ सेक्स की जो इंडस्ट्री खुली है उसमें सभी लगे हैं.. धार्मिक व्यक्ति भी!
    विमर्श को आगे बढ़ाते हुए तरुण गुहा नियोगी ने कहा कि समाज में स्त्री को बराबरी से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है, उन्होंने कई उदाहरण से इसे स्पष्ट किया। शकील सिद्दिेकी ने कहा कि जब-जब जनसंघर्ष तेज हुए हैं जातिवाद व सम्प्रदायवाद को चोट पहुँचा है। तमिल, मलयालम व तेलगू साहित्य में संघर्ष की लंबी परंपरा रही है। आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि जब हाशिए के समाज ने जनतंत्र में अपनी हिस्सेदारी दर्ज करायी तब हमारे साहित्य की धारा में क्या परिवर्तन आया उस पर विचार की जरूरत है। री क्लासऔर री कास्टहोने की परिक्रिया पुनः शुरू हुई है। जयप्रकाश धुमकेतु का मानना था कि जो प्रेम करना नहीं जानता वह क्रांति नहीं कर सकता.. हर लेखक, रंगकर्मी प्रतिरोध की धार को आगे बढायेंगे। इनके अलावे अफ़्जे जफर, अली अहमद फातमी, मोहन सिंह जी, इप्टा के राकेश आदि ने इस विमर्श आगे बढ़ाया।
    बिहार प्रलेस के महासचिव राजेन्द्र राजन ने कहा कि कबीर ने जात के साथ मुठभेड़ किया तो कबीर पंथ एक जात बन गया... उन्होंने कहा कि स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ लोग अपनी रोटी सेंक रहे हैं। दलित व स्त्री विमर्श पर आप क्रांतिकारी वाणी बोलते हैं तो आप क्रांतिकारी नहीं हैं आप बाहर किसान व मजदूरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकते हैं तभी आप प्रगतिशील आन्दोलन को आगे बढ़ा सकते हैं। रंगकर्मी नूर जहीर ने कहा कि मर्द मौका मिलते ही सत्ता हथिया लेता है फिर औरतों पर अत्याचार का दौर शुरू हो जाता है। उन्होंने दक्षिण एशिया में महिला लेखिकाओं की लेखनी की चर्चा की तथा स्त्री शोषण को उकेरती उनकी कविताओं के बारे में बताया। डा. असगर अली इंजीनियर ने जोरदार शब्दों में कहा कि मुसलमान औरतों की हालत बुरी है उलेमा उसे बेहतर नहीं होने देते। सियासत में जात-पात का खेल खेेला जा रहा है। हमें बहुत गहराई से अपने अंदर झांकना होगा.. जिस तरह की शिक्षा पद्धति है उसमें स्त्रियों का उत्थान नहीं दिखता।
    इसी सत्र में महाराष्ट्र से आयीं संगीता महाजन ने प्रसिद्ध मराठी कवि नारायण सूर्वे की कविता का सस्वर पाठ सुनाया।
    बंगाल से आये कलाकारों द्वारा रवीन्द्र गायन के पश्चात समारोह के अगले सत्र में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लेखकों की जिम्मेदारियाँविषयक परिचर्चा के मुख्य वक्ता के रूप  में डा. खगेन्द्र ठाकुर का बीज वक्तव्य हुआ। उन्होंने कहा कि हर धर्म की शुरूआत पीडि़तों के पक्ष में हुई है लेकिन जब धर्म सबल हुआ तो उसमें कट्टरता आ गयी। उन्होंने कहा कि सम्प्रदायवाद -साम्राज्यवाद की सेवा कर रहा है। जातिवाद का जन्म हुआ सामंतवाद में अब सामंतवाद नहीं है अब पूंजीवाद ने अपनी रक्षा के लिए इसे अपना लिया है।
    सतीश कालसेकर ने अपने विचार को प्रारंभ करते हुए मुक्तिबोध की पंक्ति - जो है उससे बेहतर चाहिएसे विमर्श को आगे बढ़ाया। उन्होंने मराठी की लेखन परंपरा में प्रगतिशील धारा का इतिहास बताया। मराठी में अब दलित ही नहीं लिख रहे- पत्थर काटने वाले भी लिख रहे हैं।  विमर्श में शैलेन्द्र शैली, सुभाष चैपड़ा, रामाकंात श्रीवास्तव, जयनंदन, रणेन्द्र, रंगीता महाजन , पूनम सिंह, देवनारायण पासवान देव, ईश्वरचंद जी, त्रिवेणी शर्मा सुधाकर  आदि ने अपनी सार्थक भागीदारी से विमर्श को महत्वपूर्ण बनाया। प्रभाकर चैवे की अध्यक्षता में यह विमर्श सत्र ऐतिहासिक बन गया।
    राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन डा. खगेन्द्र ठाकुर, राजेन्द्र राजन व अमिताभ चक्रवर्ती की अध्यक्षता में ताशकंद से आयीं डा. मोहय्या अब्दुरहमान ने हिन्दुस्तान व उज़बेकिस्तान के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबन्धों पर आलेख पाठ किया । उन्होंने  प्रेमचंद, मंटो, कृष्णचंदर व सरदार अली जाफ़री के साहित्य को उज़बेकिस्तान में प्राप्त सम्मान के बारे में सविस्तार बताया। उन्होंने एक नज़्म के साथ अपने वक्तव्य को विराम दिया। मप्र प्रलेस के महासचिव विनीत तिवारी ने राज्यों से प्राप्त प्रतिवेदन को पटल पर रखा। महासचिव के प्रतिवेदन के पश्चात प्रान्तों के
प्रतिनिधियों ने भी अपने प्रस्ताव पढ़े। डा. खगेन्द्र ठाकुर ने राष्ट्रीय कमिटी की बैठक रिर्पोट पेश किया। इसी सत्र में एक मिनट का मौन रख कर 2008 के गोदरगांवा सम्मेलन के पश्चात दिवंगत हुए साहित्यकारों कोे श्रद्धांजलि दी गयी जिसका संचालन अर्जुमन आरा ने किया।  धन्यवाद ज्ञापन प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डा. अली जावेद ने किया।
     सम्मेलन में जेएनयू इप्टा के साथियों द्वारा अवतार सिंह पास, मखदूम के नज़्म साथ ही  अभिज्ञान नाट्य मंडली द्वारा मशहूर शायर फ़ैज अहमद फ़ैज के जीवन पर बना नाटक बोल के लब आजाद हैं तेरेका दिल्ली विश्वविधालय के शंकर लाल हाॅल में मंचन किया गया। लेखक परवेज अहमद व निर्देशक लोकेन्द्र त्रिवेदी के इस नाटक में फ़ैज की जिन्दगी के कई पहलुओं को छूने की कोशिश की गई, इस नाटक ने दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी। कई अर्थो में प्रलेस का यह राष्ट्रीय अधिवेशन महत्वपूर्ण एवं चिर स्मरणीय रहेगा।
                      
     - अरविन्द श्रीवास्तव,
      बिहार प्रलेस मीडिया प्रभारी सह प्रवक्ता
      मोबाइल- 09431080862.
प्रगतिशील लेखक संघ का 15 वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन प्रगतिशील लेखक संघ  का 15 वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on April 18, 2012 Rating: 5

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