क्या सुधरना जरूरी है?

अपनी बैठक में ऊंकडू बैठा मैं तक्षण पूरी की गयी अपनी कविता के शब्द-अर्थ-विन्यास के सटीक संयोजन में लीं था, तभी जीतन आ धमका.मुझे पुरानी बातें याद आ गयी.बचपन में जीतन अव्वल दर्जे का शरारती था.एक दिन गुरुजी ने बेदिली से कह दिया, जीतन,तुम सुधरने वाले जीव हो ही नहीं, देवी सरस्वती को तुमसे एलर्जी है.जाओ बेटे! बकरी चराओ. शायद शादी होने तक उसने बकरी ही चराई.
   खैर, मैंने उसकी उपस्थिति का कारण पूछा तो उसने झिझकते हुए मासूमियत के साथ प्रश्न किया, भैया जी,क्या मैं अब सुधर सकता हूँ? मैंने अकबकाते हुए पूछा, क्यों? उसने सकुचाते हुए कहा, क्या कहूँ? मेरा स्वभाव तो आप जानते ही हैं.बड़ों ने डाटा,मैंने हंसकर टाल दिया.आज बेटे ने भी डाट पिला दी, बापू,आप सुधरने से रहे! तभी से पश्चाताप की भट्ठी में झुलस रहा हूँ. मैंने उत्सुक होकर पूछा, आखिर किस गलती पर? उसने नई नवेली दुल्हन की भांति लजाते हुए कहा, मैंने अपनी धर्मपत्नी की कमर में हाथ डाल कर भांगड़ा करना चाह था. इतना कहकर उसने अपना सर झुका लिया जैसे अपराधी जज के सामने झुकाता है.

   मैंने उस गरीब पर एक नजर डाली फिर दार्शनिक अंदाज में कहना शुरू किया जैसे दुनियांदार बाप अपने ईमानदार अधिकारी पुत्र को उपरी आय हजम करने का उपदेश दे रहे हैं, देखो, जब सिनेमा के परदे पर बड़े बुजुर्ग खलनायक अपनी बेटी की उम्र की कमसिन हिरोईन को छेड़ता है,फिर हीरो द्वारा पिटाता है.सैनिक हमसफ़र की आबरू पर हाथ डालता है,जान तक ले लेता है.पुलिस चोर को मौसेरा भी समझती है.घपले-घोटाले के दागी नेता-नेत्री, मंत्री-मुख्यमंत्री तक बन जाते हैं.रैली-रेला का झमेला खड़ा कर खुद को हरिश्चंद्र का अवतार और अपने विरोधियों को शैतान की संतान की संज्ञा देते हैं.मीडिया वाले उन्हें महिमामंडित करते हैं.पशुपालन विभाग खुद चारा चबा जाता है.स्वास्थ्य विभाग दवा पीकर भी अस्वस्थ है.शिक्षा विभाग को शिक्षा की कम और परीक्षा की चिंता अधिक रहती है.सड़क बनाने वाले ठेकेदार कंक्रीट में अलकतरा के साथ चेचक के विषाणु मिलते हैं.सिंचाई विभाग सिंचाई,बिजली और संचार विभाग बुरी तरह लाचार है.यहाँ तक कि रक्षा विभाग खुद असुरक्षा का शिकार है.जब इतने सारे जवाबदेह विभाग और व्यक्तियों के सुधरने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते,तो अकेले सुधरने का तुमने ठेका ले रखा है? और, इसमें बुराई ही क्या है?आखिर घरवाली भी तो तुम्हारी अपनी ही है.
     मेरा सदुपदेश उसकी खोपड़ी की खुराक कितना प्रतिशत बन पाया,कह नहीं सकता,मगर उसकी आँखों में चमक जरूर आ गयी.तभी आकाशवाणी हुई, और तुम कब सुधरोगे? जीतन उठा और चल दिया.मैनें उसे रोका भी नहीं.अब मेरा चीरहरण शुरू हुआ.वह चौखट के अंदर से रह-रहकर व्यंग-बुलेट दाग रही थी जैसे सीमापार से दुश्मन दागा करते हैं और मैं भारतीय प्रधानमंत्री की तरह स्थितप्रज्ञ होकर अपनी सहनशीलता उअर उदारता का परिचय दे रहा था. हूँ! रात रात भर जागकर जग की दशा और दिशा पर लेखनी चाहते हो, आंसू बहते हो पर अपनी दुर्दशा से बेखबर हो!....जब टोको, रायल्टी, रायल्टी..ऊंह! रायल्टी तो पेंशन की किस्मत है जो नियमित मिलती रहे.और, कॉलेज? बंजर भूमि में कुदाल चलते रहो मैंने मन ही मन स्वीकार किया, ठीक ही तो कहती है.युनिवर्सिटी भी तो भुगतान ऐसे करती है जैसे कुपोषण के शिकार बीमार माँ ममतावश अपने शिशु के मुंह में अपने सूखे स्तन डाले रहती है.
   वह भरी रेग्युलर बन्दूक की भांति फायरिंग होती रही, मेरी सलाह मानो तो चाय-पान की दूकान खड़ी कर लो या फिर धोती फाड़ कर कोपीन बना लो और हिमालय पर जाकर डेरा डालो.जवानी में न सही,बुढापे में ही सही लोग आखिर तुम्हें महात्मा बुद्ध का उत्तराधिकारी तो समझेंगे!....जहाँ गबन-घोटाले की लंगर में दुनियां भर के लोग दोनों हाथों से खा रहे हैं,तुम दूर बैठे चम्मच चाट रहे हो! मेरा तो करम ही फूटा था कि विधाता ने तुम जैसे धौंपू विद्वान के पल्लू बाँध दिया.चुटकी भर सिन्दूर के सिवा मेरे जीवन में और क्या परिवर्तन आया?....आज खोमचे वाले, ठेले वाले भी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवाते हैं.एक यह आदर्श पुरुष है,सरकारी स्कूल में डालकर बच्चों का भविष्य खराब करने पर तुले हुए हैं.ऊंह! आईएएस, आईपीएस अधिकारी के बाप कहलाना तो दूर रहा....कर्मचारी-चपरासी लायक भी नहीं छोड़ोगे...बच्चे को!
   वह टांग पटकती चली गयी रसोई सँभालने.तभी से सोच रहा हूँ.मैं भी दस से बाहर नहीं.जब सबने नहीं सुधरने की कसम खा ली है तो भला बनकर क्यों धक्के खाता फिरूं? आज कहीं भी सुधरने की हवा नहीं बह रही है तो क्या मेरा सुधारना जरूरी है?


--पी० बिहारी बेधड़क, अधिवक्ता,मधेपुरा.
क्या सुधरना जरूरी है? क्या सुधरना जरूरी है? Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on November 08, 2011 Rating: 5

No comments:

Powered by Blogger.