‘पुलिस’ और ‘प्रेस’ लिखे वाहनों से बढ़ता है रौब

सुकेश राणा/०३ जून २०११
मधेपुरा शहर की सड़कें पुलिस और प्रेस लिखी गाड़ियों से पट सा गया है.आलम यह है कि पुलिस और प्रेस में असली-नकली को पहचानना मुश्किल हो गया है.दूसरी और इस तरह की घटनाओं से अनजान बने पुलिस प्रशासन के लिए यह कभी सिरदर्द बन सकता है.मजेदार बात यह है कि इस तरह के प्रेस व पुलिस लिखी गाडियाँ अधिकतर लक्जरी हैं, जो प्रेस और पुलिस वालों की जेब पर खड़ी नही उतरती है.पत्रकार सुभाष
सुमन बताए हैं कि पत्रकारिता का ग्लैमर व प्रभाव युवाओं को खूब भाता है.इसलिए वे अपने रिश्तेदार के भी प्रेस में होने का फायदा उठाने में पीछे नही रहते हैं और बेखौफ होकर अपनी गाड़ी में प्रेस लिखवा सड़कों पर रूआब दिखाते हैं.ऐसे युवाओं का मानना है कि प्रेस लिखी गाड़ी को पुलिसवाले जल्दी नही रोकते.प्रेस लिखी गाड़ियों में दो-पहिया वाहनों के अलावे चार-पाहिया वाहन भी
हैं.यही हाल पुलिस लिखी गाड़ी का भी है.संख्यां के हिसाब से प्रेस लिखी गाड़ियों की तुलना में पुलिस लिखी गाड़ियों की संख्यां चार गुणा अधिक है.मजेदार पहलू यह है कि असली से ज्यादा नकली प्रेसपुलिस लिखी गाड़ियों के चालकों का रौब चलता है.पत्रकार सुभाष सुमन इसका कारण बताते हैं कि उपभोक्तावादी संस्कृति व मीडिया के फैलाव के कारण कुकुरमुत्ते की तरह अखबार छपना शुरू हो गया है.कुछ लोगों ने तो अपने व्यावसायिक हित को ध्यान में रखते हुए फर्जी अखबार शुरू कर दिया है.जानकारों की मानें तो कई कोयला माफियाओं ने भी इलेक्ट्रानिक चैनल की शुरुआत कर दी है.ऐसे में ग्लैमर का तड़का युवाओं को भाना स्वाभाविक है.दूसरी तरफ पुलिस लिखी गाड़ियों के चालक भी ज्यादातर पुलिस के रिश्तेदार ही होते हैं.इनका भी मकसद सड़क पर पुलिसिया रौब ही दिखाना है.स्वयंसेवी संस्था संवदिया के जुड़े सामजिक कार्यकर्ता अमित बताते हैं कि प्रशासन को इस बावत ठोस पहल करने की आवश्यकता है ताकि ऐसे नकली लोगों पर लगाम लग सके.
‘पुलिस’ और ‘प्रेस’ लिखे वाहनों से बढ़ता है रौब ‘पुलिस’ और ‘प्रेस’ लिखे वाहनों से बढ़ता है रौब Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on June 03, 2011 Rating: 5

1 comment:

  1. सुकेश जी, आपने यह बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है. पर सवाल यह है कि इसमें न सिर्फ पुलिस प्रशासन बल्कि हमारी स्थानीय मुख्यधारा की मीडिया भी उतनी ही जिम्मेवार है. मुझे नहीं लगता कि इस समस्या से निजात पाने के लिए कोई मुहिम तो दूर, स्थानीय मुख्यधारा की मीडिया ने कभी इस ओंर ध्यान भी आकृष्ठ किया है.
    इसलिए जरुरत पहले खुद को बदलने की है. अभी हम जिस मंच पर यह बात रख रहे हैं चाहे वो कितनी भी कारगर क्यूँ न हो, पर है यह वैकल्पिक मीडिया. इसलिए मैं समझता हूँ कि सबसे पहले अपने मुख्यधारा के साथियों को इस ओंर सोचने की जरुरत है.

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