रविवार विशेष- व्यंग- मेरे गदहा गुरुजी

मेरे गदहा गुरुजी

शीर्षक  पढ़ व सुनकर अति ढीठ सिगरेटी-शिखरेटी छात्र-छात्राएं भी गुरु-निंदा की बू सूंघकर मेरे घोर निंदक बन बैठेंगे. हाईटेकी प्रेम खिलाड़ी मटूकी गुरु-घंटालों का रक्तचाप असामान्य होने की सौ फीसदी संभावना है.लेकिन बन्दा के दिलोदिमाग में कतई सोच-खरोंच नही है कि गुरु निंदा जैसा महापाप का भागीदार बनने का दुस्साहस पैदा हो सके.
        अपना राम महज गुरुओं के फेहरिस्त में एक और गुरु को शुमार करने की ठान ली है.शिक्षा और सबक तो नाचीज चींटी तक से ली जा सकती है,फिर गदहा जैसा निश्छल प्राणी भला अछूता क्यों रहेगा? वैसे भी पशु-पूजन की परंपरा अपने महान भारत में पूर्व से ही रही है.गणेश वाहक मूषक जी आज भी सर्वत्र पूजनीय हैं.
        उस दिन न्यायालय के किनारे चायखाने में बैठा मैं गर्मागर्म चाय सुडक रहा था.अपने तथाकथित स्वप्न-गुरु अष्टावक्र जी की बरबस याद हो आयी.आये दिन गुरुजी से मेरा नेटवर्क ठीक उसी तरह फेल है जिस प्रकार ओसामा-बिन-लादेन से टुच्चे आतंकवादियों का.मेरी नजर सड़क पर चहलकदमी कर रही थी.
       समाहरणालय के द्वार के सामने प्रबुद्ध भारतीय नागरिक की नई सड़क का अतिक्रमण करता एक मरियल सा गदहा दृष्टिगोचर हुआ.सच,उस क्षण गदर्भ-दर्शन पाकर मैं निहाल हो उठा.मेरी आँखों में ठीक वैसी ही चमक उभर आई जैसे धाकड़ क्रिकेटरों को मैच फिक्सिंग एजेंटों को देख कर आती है.
      ध्यानस्थ गदर्भ महाराज को मैं आँखें फाड़े एकटक निहार रहा था जैसे कंडोम विज्ञापन का आगमन होते ही टीवी स्क्रीन को पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित सुसंस्कारी परिवार निहारा करता है.भगवान झूठ न बुलवाए तो ईमानदारी से कहूँगा,जबसे मैंने होश संभाला है,खुद को दो किस्म के लोगों से घिरा पाया हूँ.एक वह,जो केवल उसी विषय पर अधिक  बोलता है जिसकी जानकारी उसे रत्ती भर नही होती .दूसरा वह  वह जो खुद को  सियार और दूसरे को गदहे की संज्ञा से नवाजा करता है.
    खैर, गदहे के प्रति औरों की चाहे जैसी धारणा हो,मुझे कोई आपत्ति नही,लेकिन धाराधाम पर विद्यमान तमाम पशु-प्राणियों में गदहा मेरी पहली पसंद है.मेरी इस अनोखी शौक से तिलमिलाए भले लोग भले ही मुझे गदहा-गोत्र का प्राणी समझ बैठे,इसकी मुझे तनिक परवाह नही.
    मौलिक-चिन्तक सा थोबड़ा लटकाए उस स्थितप्रज्ञ गदहे पर नजर गडाए मैं अवांछित अतीत के दलदल में धंसता चला गया.शादी के बाद प्रथम बार पदार्पण होते ही अपनी सजी-सजाई झोंपड़ी में गदहे की जीवंत तस्वीर टंगी देखकर मेरी श्रीमतीजी भड़क उठी थी.सुहाग-सेज पर ही हत्थे से उखडती विफडती  फट पड़ी,"आपकी पसंद भी विलक्षण है! यदि यही सनक ताउम्र  रही तो मुझे मैया भगवती से स्पेशल याचना करनी पड़ेगी ताकि अगले जनम में पुन: आपके पल्लू बंधने  से शायद मुझे मुक्ति मिल सके." अवाक होकर मैं उसे देखता रह गया.थूक सटक कर अपना गला तर किया फिर मनुहार करते हुए मैंने निर्दलीय उम्मीदवार की भांति उसे विश्वास दिलाने की भरसक कोशिश की,"अरे भाग्यवान! जिस प्राणी से तुम इस कदर चिढ़ती हो, इस जगत का अनूठा प्राणी है.हंड्रेड परसेंट अहिंसक और कर्मठ.बेचारा रूखा-सूखा खाकर भी ईमानदार प्रयास करता रहता है.मगर,श्रीमती जी जाति-धर्म और दलीय भावना से ग्रसित मतदाता की तरह ना-नुकुर करती रही.अपनी विगत असफलता से क्षुब्ध होकर मैं अपने सर को कई झटके दिए.
      मेरी अजीबोग़रीब ऐसी हरकत से हतप्रभ किसी चिरपरिचित मित्र ने मुझे आवाज दी, पर मेरा ध्यान भंग करने में वह असफल रहा.पुन: चिल्लाकर  उसने तीखी टिप्पणी कर डाली, "अबे गदहे! कुल-खानदान पर कुछ अधिक ध्यान देने लगे हो क्या? अचकचाकर मैं उसे घूरने लगा.फिर सहज होते हुए मुस्कुराते हुए कहा,"ऐसी बात नही,मैं उसे उपदेशक के रूप में देख रहा था." मेरे इस निहायत भोलेपन पर उसने शानदार ठहाका लगाया.मैं कटकर रह गया.
     सरेआम अपनी खिल्ली उड़ाते देख मैं मर्माहत होकर नाराज स्वर में कहा,"अबे मूंगफली के छिलके,चमगादड़ की औलाद! उन धर्मगुरुओं के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है जो जगतगुरु बनने की होड में शामिल होकर शोर तो मचा रहे हैं मगर मुफ्त का माल खाकर चर्बीदार वह वह सांड पराई स्त्री को देखकर लार भी टपकाता है.लंगोटधारी तथाकथित सन्यासी माया की बुराई पानी पी-पीकर थकते नहीं,लेकिन माया से लिपटकर ही मोक्ष पाना चाहता है.तथाकथित धर्म के ठेकेदार जयन्ती भारती से लेकर प्रेमशंकर तक की रासलीला का रसास्वादन करके भी धर्म-भीड़ूओं की अंधी-आस्था डिगती नही.यदि मेरी लघु श्रद्धा इस वफादार और सहनशील जीव के प्रति जरा-सी गहरा गयी तो मेरा क्या कुसूर? मित्र ने फिर एक बार जोरदार कहकहा लगाया.मैं खिसियाकर रह गया.
    तभी गदहा दुलत्ती चला-चलाकर हेंको-हेंको का शंखनाद करना शुरू किया.गदहे की इस पैंतरेबाज़ी देखकर मित्र ने व्यंगवाण छोड़ा,"वह देख,तुम्हारा गदहा गुरुजी कौन-सा संगीत सुना रहा है? मैं भी व्यंग मिसाइल छोड़ते हुए अपने बीत्ता भर का सीना गज भर फुलाकर कहा,"इसे माइकल जैक्शन स्टाइल में पॉप संगीत समझने की भूल मत करना मेरे यार! वह अधिकारियों-कर्मचारियों को  नसीहत का शरबत पिला रहा है."वह मेरा मुंह देखने लगा.
     उत्साहित होकर मैंने पुन: व्यंग तोप दागा,"अपनी बेसुरी आवाज में वैशाखनंदन जी यही कह रहे हैं कि मैं वजनी बोझ ढोकर भी गंतव्य तक मस्ती के साथ पहुंचा देता हूँ,मगर आप जैसे तनख्वाहधारी मोटी रकम हजम करके भी दुबली-पतली संचिका को क्यों नही हिला-डुला पाते हैं? आप पर लानत है ऐ हिन्दुस्तानी कामचोरों!बेधड़क बोलकर मैं अपनी जीभ फिराकर होठ गीला करने लगा.
       उसी समय कथित मित्र के सगा-बाप अपने तथाकथित दलालों के साथ कार्यालय से बाहर आये.गदहे की अक्ल और शक्ल पर तीखी टिप्पणी करते हुए चायखाने की ओर बढ़ गए.मैंने महाब्रांड अमिताभ बच्चन की तरह चवन्नी मुस्कान के साथ मित्र को देखा.वह बगल झांकता नजर आया.
                                                               --पी०बिहारी 'बेधड़क'
रविवार विशेष- व्यंग- मेरे गदहा गुरुजी रविवार विशेष- व्यंग- मेरे गदहा गुरुजी Reviewed by Rakesh Singh on October 23, 2010 Rating: 5

1 comment:

  1. अपनी अपनी सोच है कोई गुरु अपने शिष्य को गदहा समझता है
    कहीं शिष्य अपने पूजनीय गुरुजी को गदहा समझ कर अपने
    अधूरेपन की पह्चान देता है।शुक्र है बेधड़क जी इनमे से नहीं हैं।
    इनका भोलापन इतना महान है कि ये एक आदर्श हो सकते हैं,
    भले ही इनका आदर्श एक गदहा ही क्यों न हो।

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