सिंहेश्वर स्थान मधेपुरा से आठ किलोमीटर उत्तर में
सम्पूर्ण कोशी अंचल का महान शैव तीर्थ है. यहाँ का शिवलिंग अत्यंत प्राचीन है.
वाराहपुराण के उत्तरार्द्ध की एक कथा के अनुसार विष्णु ने इस शिवलिंग की स्थापना
की थी. मंत्रद्रष्टा ऋष्यश्रृंग ने इसे पुन: जागृत किया. महाभारत (वन पर्व 84/133)
में वर्णित कौशिकी तीर्थों में एक है चम्पारण्य तीर्थ. यह क्षेत्र अंगराज का अरण्य
भाग था. अंग की राजधानी चंपा थी. सभी कोणों से परीक्षण के पश्चात महाभारत का
चम्पारण्य तीर्थ यह स्थल सटीक बैठता है.
चम्पारण्य से वर्तमान चम्पारण्य जिला को समझना एक भौगोलिक भूल होगी. छठी शताब्दी के ग्रन्थ- ‘शक्ति संगम तंत्र’ ने इस तथ्य को और भी स्पष्ट किया है. इसके अनुसार विदेह भूमि मिथिला की सीमा इस प्रकार निर्धारित की गई है-
‘गण्डकी तीरमारस्य चम्पारण्यान्तक
शिवे |
विदेह
भू समाख्याता तैरमुक्त मिवसतु ||’
7/27
विदेह भूमि पश्चिम में गण्डकी तीर और पूर्व में
चम्पारण्य तक फैली हुई है. इस प्रकार मिथिला के पूर्व का क्षेत्र चम्पारण्य है.
वर्तमान चम्पारण जिला मिथिला से पश्चिम है. यहाँ के अधिकाँश लोगों में लोक देवी ‘चम्पा’ की पूजा होती है. शंकरपुर,
निशिहरपुर आदि स्थानों के मंदिर में लोक देवी चम्पा की मूर्ति स्थापित है. किरात
(बांतर) तथा अन्य जाति के लोग चंपावती का भगैत गाते हैं. अत: सिंहेश्वर स्थान को
चम्पारण्य तीर्थ नहीं मानना एक ऐतिहासिक भूल होगी.
सिंहेश्वर
के निकट ही कोशी तट पर सतोखर गाँव है, जहाँ ऋष्यश्रृंग ने ‘द्वादश वर्षीय यज्ञ’ किया था जिसमें गुरुपत्नी
अरुनधती के साथ राम की तीनों माताएँ आईं थी. इस यज्ञ का उल्लेख भवभूति ने ‘उत्तर रामचरित’ के प्रथमांक में किया है. इस
यज्ञ के सारे साक्ष्य कोशी तीर पर सात कुंडों के रूप में मौजूद हैं. दो कुण्ड कोशी
के पेट में समां गये हैं. खुदाई से राख की मोटी परत प्राप्त हुई है जो दीर्घकाल तक
होने वाले यज्ञ के साक्ष्य हैं.
-हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’
(प्रसिद्ध पुस्तक ‘कोशी अंचल की अनमोल धरोहरें’ से साभार)
सिंहेश्वर स्थान का पौराणिक महत्त्व: हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 11, 2013
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