औरत तेरी यही कहानी (कहीं मुर्दों से, कहीं जिंदों से, फर्क क्या?)

अरब दुनिया से आई हुई कुछ खबरों में कहा गया है कि इजिप्ट में एक ऐसी तैयारी चल रही है जिसके बाद वहां के मर्द अपनी बीवी के मर जाने के छह घंटों बाद तक सेक्स कर सकता है। वहां की संसद तक ऐसे प्रस्ताव के जाने की चर्चा हुई तो वहां के महिला संगठन और मीडिया के लोग उबल पड़े। हालांकि सरकार ऐसी किसी तैयारी से इंकार भी कर रही है लेकिन इस्लाम से जुड़े हुए कुछ धर्म गुरूओं ने खुलकर ऐसी बात की वकालत की है।
            यह बात मेरे ध्यान में एकदम से नहीं आई होती अगर तस्लीमा नसरीन ने इस खबर पर उबलते हुए नाराजगी जाहिर न की होती। उनके भेजे एक संदेश से इसके बारे में पता लगा, लेकिन उनका नजरिया इस मामले में कुछ अलग था। उन्होंने यह कहा कि देखो जिन मर्दों को जिंदा औरतों से बलात्कार पर कोई फिक्र नहीं होती वे लोग मुर्दा औरत से बलात्कार पर फिक्र जाहिर कर रहे हैं। धर्मांधता के खिलाफ और औरतों के हक की तरफदारी में गाली-गलौच की जुबान लिखने वाली तस्लीमा का यह नजरिया अपनी जगह ठीक है कि जिन्हें जिंदा की फिक्र नहीं वे मुर्दा की बात कर रहे हैं, लेकिन ये दोनों ही बातें एक ही ऐसी सोच से उपजी हुई हैं जिसके लिए औरत पांव की जूती की तरह रखी जाती हैं और जिसे एक मुसलमान तीन एसएमएस भेजकर तलाक दे सकता है, जिसे तुलसीदास ढोल की तरह पीट सकता है। जिसे हिंदू सती बना सकता है और जिसे ईसाई दुनिया अपने अजन्मे बच्चे के गर्भपात का हक देना नहीं चाहती।


            यह कैसी अजीब बात है कि दुनिया में संगठित शहरी धर्मों में ऐसी ज्यादतियां होती हैं जो कि आधुनिक सभ्यता के साथ बढऩे वाले धर्म हैं। दूसरी तरफ जो प्राचीन असंगठित आदिवासी समाज है उसके धर्म की धारणा, उसके सामाजिक रीति-रिवाज अधिक न्यायपूर्ण है और अधिक समानता वाले हैं। आदिवासी महिला को किसी भी शहरी महिला के मुकाबले एक बेहतर दर्जा मिलता है और तकरीबन बराबरी के हक मिलते हैं। बहुत से ऐसे आदिवासी समाज हैं जो कि मातृसत्तात्मक हैं और जहां पर आदमी को अपनी बीवी के घर रहकर काम करना पड़ता है। इसका क्या मतलब निकलता है? यही कि सारी आधुनिक और सारी शिक्षा में एक ऐसे धर्म को बनाया, बढ़ाया, और अपने ऊपर लाद लिया जिसमें उसने औरत के हक छीनने का पुख्ता इंतजाम कर लिया। सामाजिक स्तर पर अगर देखें तो आज पंजाब में, जहां पर कि सिखों की अधिक आबादी है, वहां पर अजन्मी कन्याओं के गर्भपात के चलते लड़के-लड़कियों का अनुपात इस कदर बिगड़ गया है कि वहां लड़कों को दुल्हनें नसीब नहीं हो रहीं।
            इसलिए जब इजिप्ट की यह खबर आई तो यह बात तकलीफदेह तो लगी, मन नफरत से भर गया, लेकिन कोई सदमा नहीं लगा। हम एक इस्लामिक और मुस्लिम देश को ही क्यों कोसें, हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के लिए सरकार का रूख यह है कि पुलिस का मुखिया कहता है कि आठ बजे के पहले कामकाजी अकेली महिलाएं घर चली जाएं क्योंकि वहां बलात्कार की बहुत घटनाएं हो रही हैं। दिल्ली की पुलिस से लेकर कर्नाटक के मंत्री तक बहुत से लोग बलात्कार के जुर्म के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराते हैं क्योंकि उनका मानना है कि महिलाएं उत्तेजक और भड़काऊ कपड़े पहनती हैं तो ऐसे हादसे होते हैं। दिल्ली के आसपास का एक इलाका ऐसा हो गया है जो कि बलात्कार के लिए समंदर के उस बरमूड़ा त्रिकोण जैसा हो गया है जहां बहुत से जहाज डूब जाते हैं।
            इसलिए न तो मुसलमानों के भीतर महिलाओं की बदहाली को उनके मजहब का मामला मानकर छोडऩे की जरूरत है और न ही अकेले मुस्लिम समाज को महिला-विरोधी करार देकर कोसने की जरूरत है। भारत में लड़के-लड़कियों के अनुपात के आंकड़े साबित करते हैं कि मुसलमानों के भीतर कन्या भ्रूण हत्या के मामले हिंदुओं के मुकाबले बहुत कम हैं। इसलिए हिंदुओं में शाहबानो को तलाक के पहले, शादी के पहले, जन्म के भी पहले निपटा दिया जाता है।
            लौटकर फिर एक मुर्दे से बलात्कार की बात करें तो यह लगता है कि लोग जीते-जी जिस जिंदा को मुर्दा मानकर चलते हैं, सेक्स के मजे के लिए उस मुर्दे को भी छह घंटे जिंदा मानने का कानून चर्चा में है! ऐसा लगता है कि मर्द के ऐसे हक की वकालत करने वाले मुस्लिम धर्मगुरू ने चिकित्सा विज्ञान के जानकार लोगों से राय लेकर ही यह मांग उठाई है क्योंकि छह घंटे के बाद तो मुर्दा अकडऩे भी लगता है। इसलिए एक औरत की लाश के साथ भी मजा करने की मर्द की चाह को बस उतना ही समय मिल सकता है।
            कोई भी देश हो, जाति हो या धर्म हो, अब ऐसा वक्त आ चुका है कि महिलाओं के हक के लिए एक बहुत आक्रामक तरीके से सड़क से संसद तक लडऩा होगा। एक औरत को राष्ट्रपति बनाने के बाद सोनिया गांधी सरकार और सुषमा स्वराज वाला विपक्ष, हर कोई महिला आरक्षण विधेयक पर सो गए दिखते हैं। लोकपाल विधेयक इस तरह अंधड़ जैसे खबरों में आ गया, संसद में छा गया कि मानो इससे औरत-मर्द की समानता भी तय हो जाएगी। दूसरी तरफ हम बहुत बार यह बात लिख चुके हैं कि किस तरह लोकपाल की मसौदा कमेटी में दोनों पक्षों की तरफ से रखे गए दस लोगों में से एक भी औरत को जगह नहीं दी गई।
            अभी संसद में रेखा के आने के बाद जो नया लतीफा चारों तरफ फैला है वह यह है-रेखा, हेमा, जया और सुषमा, सबकी पसंद निरमा।
                      अब जरा याद कर लें कि इन चारों के अलावा सोनिया, मायावती, ममता, जयललिता में से और भी कौन ऐसा है जिसने पिछले कई महीनों में या बरसों में महिला आरक्षण का नाम भी लिया हो? आज अगर कोई गूगल पर भारत के महिला आरक्षण को ढूंढे तो भी शायद शुरू के कई हजार नतीजों में से कोई भी इन महिलाओं के नाम के साथ नहीं मिलेगा। और इनमें से किसी भी महिला का सिर्फ नाम अगर ढूंढा जाए तो पिछले एक हफ्ते में ही इनके लाखों नतीजे हर एक के निकल आएंगे।
            इस राजनीतिक बेईमानी को क्या महिला, एक आम महिला, आम महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं माना जाए?

--रंजन कुमार, पटना 
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
औरत तेरी यही कहानी (कहीं मुर्दों से, कहीं जिंदों से, फर्क क्या?) औरत तेरी यही कहानी (कहीं मुर्दों से, कहीं जिंदों से, फर्क क्या?) Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 15, 2012 Rating: 5

No comments:

Powered by Blogger.