जानती हूँ तुम नहीं आओगे किन्तु,
फिर भी हर सुबह
अपनी दहलीज पर खड़ी होकर
उस रास्ते की ओर देखती हूँ
अपलक
अपलक
जिससे कभी कभी तुम
आ जाया करते थे
आ जाया करते थे
सूखी धरती पर
शीतल छाया की तरह
शीतल छाया की तरह
किन्तु,
बीती बातों की तरह दिन
सारा गुजर जाता है रात को चूमती शाम भी
देहरी पर दीया जला
नित्य कर्मो की तरह मै
फिर तुम्हारी प्रतीक्षा में लग जाती हूँ
जानती हूँ
तुमने कोई वादा नहीं किया
कोई करार नहीं
फिर भी मेरा पागल मन
तुम्हारी बाट जोहता रहता है
आँखें उनींदी हो जाती
रात की उदासी और गहरा जाती
सारा तन शिथिल पत्रांक पर पड़े
ओस कण की तरह ढुलक जाता है
मन मेरा तुम्हारे ख्यालों से परे
धकेलने लगता है
तुम्हारी यादों के बाहुपाश से अपने को
छुड़ाने की
व्यर्थ चेष्टा करती हूँ
सबकुछ अचानक निरर्थक ,अर्थहीन
लगने लगता है ..
तुमसे दूर होने लगती हूँ कि फिर
तुम्हारी बातें
मुझे अपने स्नेह के अंक में समेट लेती
है
तुम्हारे प्रेम की सुखद छाँव में सो जाती हूँ
और फिर सुबह से वही प्रतीक्षा
वही क्रिया- वही रूटीन ....
आखिर क्यों...????????????
--
डॉ शेफालिका वर्मा, नई दिल्ली
आखिर क्यों ..???///डॉ शेफालिका वर्मा
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
October 14, 2012
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