राकेश सिंह/१५ जुलाई २०११
लगातार हो रहे आत्महत्याओं का दौर थमने का नाम नही ले रहा है.ख़बरें लगातार मिल रही हैं, कभी किसान तो कभी स्टूडेंट्स, कभी कर्ज में डूबा व्यक्ति तो कभी प्रेमी या प्रेमिका अलग-लग हालातों में आत्महत्या कर रहे हैं.और यदि देखा जाय वतो इसके सबसे ज्यादा शिकार युवा पीढ़ी ही हो रही हैं.डिप्रेशन,बीमारी, लाचारी आदि व्यक्ति को इस कदर अपने आगोश में लिए जा रहा है कि कुछ लोगों के पास उनके अनुसार कोई रास्ता नही रह जाता है सिवाय आत्महत्या के.वैसे तो जब भी हम किसी की आत्महत्या के बारे में सुनते हैं सीधी तौर पर कह डालते हैं कि बेवकूफ था, मर के क्या मिला,पर हकीहत ये भी है कि लगभग हरेक व्यक्ति अपनी जिंदगी में कम से कम तीन बार आत्महत्या के लिए गंभीरता से सोचता है.
यदि दुनियां भर के आंकड़ों पर एक नजर डालें तो हर चालीसवें सेकेंड पर कहीं न कहीं एक आत्महत्या होती है और प्रति एक लाख व्यक्ति पर सोलह व्यक्ति की मौत आत्महत्या के कारण
होती है, और भारत में यह आंकड़ा प्रति एक लाख पर १०.३ है.भारत में आत्महत्या में लगातार वृद्धि हो रही है.यहाँ २३% आत्महत्या पारिवारिक समस्या, २२% बीमारी से तंग आकर, ४% प्रेम में नाकाम होकर, ३% गरीबी, ३% कारोबार में घाटा, २.५% दहेज और २.५% परीक्षा में
यदि दुनियां भर के आंकड़ों पर एक नजर डालें तो हर चालीसवें सेकेंड पर कहीं न कहीं एक आत्महत्या होती है और प्रति एक लाख व्यक्ति पर सोलह व्यक्ति की मौत आत्महत्या के कारण
होती है, और भारत में यह आंकड़ा प्रति एक लाख पर १०.३ है.भारत में आत्महत्या में लगातार वृद्धि हो रही है.यहाँ २३% आत्महत्या पारिवारिक समस्या, २२% बीमारी से तंग आकर, ४% प्रेम में नाकाम होकर, ३% गरीबी, ३% कारोबार में घाटा, २.५% दहेज और २.५% परीक्षा में


मूल कारणों में बर्दाश्त करने की क्षमता का ह्रास होना भी है.स्टुडेंट्स और युवा के मामले में यह बात बहुत हद तक सही है कि उनमे से अधिकांश न अब माता-पिता की डांट सुनने की क्षमता रखते हैं और न ही पढाई का दवाब या फिर अपनी उपेक्षा ही सहन कर सकते हैं.
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि आज का कम्पेरेटिव सिस्टम आत्महत्या के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है.व्यक्ति जब अपनी सफलता की तुलना दूसरों से करता है तो उसे ऐसा लगता है कि
वह सफल नही हो पाया और उसका जीना बेकार है.आत्महत्या से पहले लोग खुद को असहाय महसूस करने लगते हैं. सहनशीलता का अभाव और प्रेशर में रहने की प्रवृति भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.अगर देखा जाय तो बच्चों को आत्महत्या के मोड़ तक पहुंचाने में समाज भी कम जवाबदेह नहीं.अपना नजरिया बच्चों पर जबरन थोपना भी उसे तनाव में ला देता है.

आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति को रोकने के लिए पैरेंट्स, समाज, मनोवैज्ञानिकों तथा बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा ताकि वे बच्चों, युवाओं तथा अन्य लोगों का सही मार्गदर्शन कर सकें जिससे लोगों में निराशा की प्रवृति कम हो सके और और आत्महत्याओं का दौर थम सके.
क्या रुक सकेंगी आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति ?
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
July 15, 2011
Rating:

sahe kaha aap ne magar kon aayega samne,
ReplyDeletekoi to suruvath kre
mare blog par aap ka swagath
http://sarapyar.blogspot.com