जुमे की नमाज क़ज़ा हो तो कोई बात नहीं,
मंदिर में भोग तो फिर चढाएंगे,
चल के पहले किसी
भूखे को खिलाया जाए.
भूखे को खिलाया जाए.
मजहबों के टकराव में
जो बिखरे गुलशन,
जो बिखरे गुलशन,
मोहब्बतों के गुल,
उस गुलशन में उगाया जाए.
उस गुलशन में उगाया जाए.
नफरतों के ‘शूल’ डगर से चुनकर,
‘प्यार’ के फूल राहों में बिछाया जाए.
पहले अँधेरे में एक ‘दीप’ जलाया जाए.
दूसरी मंजिल खड़ी कर लेंगे, अपने घर की
पहले-पड़ोस में उजड़े किसी गरीबा का
एक झोंपड़ा तो तबीयत से बसाया जाए.
अपने घर कालीन फिर बिछायेंगे,
नंगी जमीन पर सोई हुई बुढ़िया के लिए,
एक कम्बल तो कोशिश से जुटाया जाए.
गिरजे में प्रार्थना किसी रोज और कर लेंगे,
पहले पड़ोस में लगी आग बुझायी जाए.
अपना तन ढँक लेंगे फिर पश्मीने से,
पहले ठंढ से ठिठुरती हुई उस बेबा को,
एक फटी चादर तो करीने से उढ़ायी जाए.
अपनी हर घूँट को मयस्सर है शराब-बेहिसाब,
पहले प्यासे को दो घूंट पानी तो पिलाया जाए.
घर है मस्जिद से जरा दूर,
क्यों न ऐसा कर लें...
बगल में बिलखते हुए बच्चे को हँसाया जाए.
**आनन्द मोहन (पूर्व सांसद)
मंडल कारा सहरसा.
इंसानियत///आनन्द मोहन (पूर्व सांसद)
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
August 19, 2012
Rating:

Well written, sir !
ReplyDeleteReally u have got an amazing ability to express your feelings through the 'domestic' words.
And your poem acts as the 'mirror' which always gives the real image.