आरती निम्नमध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है, जहां बेटियों के क्रियाकलाप को पिता की पगड़ी की डोर से बांध कर देखा जाता है। दूसरी तरफ, छोटू आर्थिक हैसियत में आरती से कमतर था। ऐसे में आरती का छोटू से न केवल इश्क वरन शादी का फ़ैसला परिजनों को नागवार गुजरा। आरती की माने तो उसकी भाभी ने छोटू को शादी की बात करने के लिए उसके घर बुलाया था। बड़ा सवाल यह है कि छोटू को बुलाया गया था या छोटू आरती से रात के अंधेरे में मिलने के लिए चोरी-छिपे गया और पकड़ा गया। अगर चोरी- छिपे गया था तो यह पूरी तरह प्रेम की शुचिता, सामाजिक मर्यादा और नैतिकता का उल्लंघन था। अगर छोटू शादी के प्रलोभन पर आरती के घर गया था तो यह समझ से परे है कि रात के 02 बजे बिना अभिभावक की उपस्थिति में कैसे और किस तरह शादी तय होती?
प्यार करना गुनाह नही होता है। छोटू को प्यार की जो बर्बर सजा दी गई वह अमानवीय, लोमहर्षक और बर्बरता की इन्तहा थी। आख़िर इतनी बर्बरता की वजह क्या रही होगी? सीधे तौर पर यह 'ऑनर किलिंग' का मामला है, लेकिन पारवारिक सदस्यों के बीच अनबन और आरती की शादी को लेकर मतभेद कहीं बर्बरता की असली वजह तो नहीं ? जानकर बताते हैं कि छोटू स्वच्छ छवि का युवक नही था। आरती घटना की रात लगभग 03 बजे छोटू के मामा के घर, जो आरती के घर से महज 50 मीटर दूर है, जाकर छोटू को बचाने की गुहार लगाती है लेकिन छोटू के ननिहालजनो की तरफ से फ़ौरी कदम क्यों नही उठाया जाता है ? जाहिर है इस प्रकरण में जो कुछ झोलाछाप पत्रकार घटनास्थल पर पहुंचकर अधकचरा प्रवचन कर रहे हैं, वह पूरा सच नही है।
छोटू की मौत के बाद जिस तरह छोटू के गांव में शरण लेकर आरती छोटू के गुनहगारों को सजा दिलाने के लिए तत्पर दिख रही है, वह बगावत और समर्पण अपने आप मे अभूतपूर्व है। निश्चित तौर पर गुनहगारों को सज़ा मिलनी चाहिए, आरती अपने प्यार को इसी रास्ते श्रद्धांजलि देना चाहती है। लेकिन, अंतिम सवाल कि क्या आरती की यह जिम्मेवारी नही थी कि जिन्होंने उन्हें जन्म दिया, 19 वर्षों तक परवरिश की, ख्वाबों की दुनिया सजाने से पहले उन्हें भी इत्तिला कर दिया होता, अपने मुहब्बत पर उनके रज़ामन्दी की मुहर लगवा ली होती तो इस कहानी का यह खौफ़नाक अंत नहीं होता।
कह नहीं सकता कि, प्रख्यात उपन्यासकार राजेन्द्र यादव की रचना 'मन्त्रबिद्ध' का यह अंश कितना सही और कितना गलत है कि 'क्या सचमुच प्यार जैसी कोई ऐसी भी चीज होती है, जिसमें आदमी अपना भविष्य, अपना जीवन, अपनी सुरक्षा सभी कुछ तुच्छ समझने लगता है? सिनेमा और साहित्य के संस्कार जरूर ऐसे हैं, लेकिन जिंदगी में तो प्यार दो स्वार्थों के सम्मानजनक समझौते का ही दूसरा नाम है'।
-पंकज भारतीय
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और NDTV से जुड़े हैं.)
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