

चुनाव के बाद अचानक से आ गए दिवाली किसी को तो खूब भा रहा है, पर कई चेहरे उदास हैं. पर दीपावली है, हिन्दूओं का धार्मिक पारंपरिक त्यौहार है, मनाना तो है ही. बाजार में घरों और दुकानों की सजावट अच्छे ढंग से करने की कोशिश की गई है. पर एक ख़ास बात जो कई सालों से दिख रही है, वो ये है कि जबतक बिजली रहती है, चारों तरफ दिवाली से जरूर लग रही है, पर बिजली के गुम होते है शहर का नजारा सामान्य सा दिखने लगता है. दीपों की जगह ‘आर्टिफिशियल’ दीप यानी चाइना के बने बल्वों ने ले लिया है और दीपावली जैसे त्यौहार की भी उमंगों में कहीं न कहीं बनावटीपन आने लगा है.
कहते हैं त्रेता युग में जब भगवान श्री राम जब रावण का बध करने के बाद अयोध्या वापस लौटे थे तो लोगों ने उनके सम्मान में अपने घरों पर और घरों के सामने दीप जलाए थे और तब से दीपों की आवली (क्रम) यानी दीपावली का पर्व भारत में मनाया जाने लगा. पर ये तब की बात है. अब तो हर मन में रावण (दुर्गुण) बसा है और हम उसे न तो निकाल पाते हैं और न ही निकालना ही चाहते हैं. जाहिर है दीपावली जैसे पर्व की धार्मिकता और सार्थकता तब ही होगी जब हम समाज में सद्भाव कायम करने में सफल होंगे.
जो भी हो, मधेपुरा टाइम्स के सभी बुद्धिजीवी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं.
(नि.सं.)
जगमग हुआ शहर और गाँव, ये दिवाली की रात है: पर मन के अँधेरे को मिटायें तो होगी दिवाली की सार्थकता
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
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November 11, 2015
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