यदि 'आप' विचारहीन पार्टी तो वैचारिक कौन ?

कुछ परम्परागत और  आधुनिक वैचारिक 'चोंचलेबाजी' कर रहे हैं कि 'आप' पार्टी विचारविहीन पार्टी है. इसलिए इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता  कि यह जनता के उम्मीदों पर सौ फ़ीसदी खरी उतरेगी.
         अब इन चोंचबाजों को को कौन समझाये कि 1925 से अब तक निरंतर वैचारिक चोंचबाजी के बावजूद कैसे बहुतेरे राज्यों में विचारविहीन क्षेत्रीय पार्टियों का न केवल जन्म हुआ, बल्कि शुद्ध जाति-धार्मिक, क्षेत्रीय और परिवारवाद पर टिकीं ये पार्टियाँ निरंतर आगे बढ़ रही हैं और  राजसत्ता का स्वाद चख रही हैं.
जो पार्टियां वैचारिक पार्टी होने का दावा करती रही हैं या कर रही हैं. ऐसी पार्टियों के पक्ष में खड़े होने वाले सिद्धांतकार क्या बतायेंगे कि वैचारिक पार्टियों ने अब तक विचारधारा के नाम पर क्या उखाड़ा है...?
        जब देश में दंगा हो रहे थे या हुए तब भी ये वैचारिक पार्टियाँ थीं और  इनके समर्थक सिद्धांतकार भी थे. क्या उखाड़ लिये....?
देश में महांगाई बढ़ रही थी या है. लोग 100 रूपये किलो प्याज़-टमाटर, 50 रूपये क़िलो आलू खाने के लिए मजबूर थे और  हैं, तब भी ये वैचारिक पार्टियों थीं.क्या कीं ...? देश में जब 80 करोड़ लोग  20 रूपये रोज़ाना की आमदनी पर जीवन यापन करने के लिए मजबूर हैं, तब भी ये वैचारिक पार्टियां मौजूद हैं.क्या  उखाड़ रही हैं...?
              जिन-जिन राज्यों में वैचारिक पार्टियों की मिली-जुली सरकारें थीं. उस समय इनकी वैचारिकी ने संबंधित राज्यों में क्या गुल खिलाया....
यदि वैचारिकी को ही सर्वोपरि मान लिया जाय तो 33 साल कम्युनिस्ट शासन के बावजूद पश्चिम बंगाल में देश का सबसे बड़ी देह मंडी "सोना गाछी" अब भी कैसे जिंदा है. और  यह भी कि हाथ रिक्शा से अभी भी वहाँ श्रमशील लोगों को मुक्ति क्यों नहीं मिल सकी है...?
          उत्तर प्रदेश में 'समाजवाद' के नाम पर बनी समाजवादी पार्टी शुद्ध परिवारवाद और जातिवाद पर कैसे टिकी है.समय-समय पर किस क़दर वैचारिक पार्टियाँ इस पार्टी के साथ सत्ता हासिल करने के लिए चोंच लड़ाती दिखती हैं. तब वैचारिकी कहाँ पानी भरने गयी होती है...?
           इसी राज्य में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारधारा के नाम पर बनी पार्टी कैसे अम्बेडकर के वैचारिकी से इतर कार्य कर रही थी,है. जब मूर्तियों के निर्माण में 14 अरब का घोटाला हो रहा था, तब भी वैचारिक पार्टियाँ और  वैचारिक लोग थे, क्या किये...? यूपी की दोनों ही पार्टियाँ लूट-खसोट में लिप्त पायीं गयीं.
जब बाबरी मस्जिद ढहायी जा रही थी और  गुजरात जल रहा था.तब भी वैचारिक पार्टियाँ थीं.
'अन्ना हजारे' किसी विचारधारा के हैं,यह सब जानते हैं.बावजूद इसके दिल्ली में उनके अनशन मंच पर वैचारिक पार्टियाँ क्या करने गयीं थी...?
       देश में जब आपातकाल लागू हुआ,तब भी वैचारिक पार्टियाँ थी.उसके सिद्धांतकार थे.बावजूद इसके इन्हीं वैचारिक पार्टियों ने कांग्रेस का पोंछ पकड़कर कई बार राजसत्ता का स्वाद चखा.तब विचारधारा बचाने या ख़तरा उत्पन्न होने की चिंता नहीं थी...?
दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और  छत्तीसगढ़ के चुनावों में वैचारिक पार्टियों को चुनाव लड़ने से किसने रोक रखा था.? लड़ते चुनाव.जनता के बीच में जाते,अपनी अौकात का पता लगाते. सिर्फ़ और  सिर्फ़ विचारधारा का नाच करने से विचारधारा का फैलाव नहीं होता है.इसके लिए लाज़मी है. लोगों को अपने विचारधारा के साथ जोड़ना और  उनकी बेहतरी के लिए काम करना. सिर्फ़ कर्षक नारा लगा देने और  भाषण देने मात्र से लोगों की भूख नहीं मिटेगी.भूख से तड़पती, जनता, बेरोज़गारी के दलदल में फँसा युवा शाम को चूल्हे पर वैचारिकी को नहीं पकायेगा.              पेट भूखा, तन नंगा, मन चंगा की विचारधारा का नारा देने वालों को अपने वैचारिकी पर पुनर्विचार करना होगा. कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा के पक्ष में काम करने के लिए काम किया.वैचारिक 'अजान' करने के लिए नहीं. भारती में कम्युनिस्ट पार्टियों ने अब तक क्या किया...? केवल रौशन केवल वैचारिक 'अजान' ... वैचारिक पार्टियों की कितने राज्यों में पहुँच है.जनता के किस सवालों पर ये खड़े हो रहे हैं और उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं.कितनी पार्टियों का जनता के साथ सीधा संवाद,जन भाषा में है.अंग्रेजी में ताबड़तोड़ आदर्श,सिद्धांत और  विचारधारा झोंकने से जनता नहीं जुड़ेगी.जनता के शासन के लिए जनता के बीच में होना ज़रूरी है.
                  देश में जितनी पार्टियों ने जन्म लिया है, उन सबके लिए एक मात्र ज़िम्मेवार वैचारिक पार्टियाँ ही हैं.यदि ये आम जनता को वैचारिक रूप से जागरूक की होतीं,तो शायद जातिवाद क्षेत्रवाद,धर्मवाद और  साम्प्रदायिकता का उभार न हुआ होता.
          वैचारिक पार्टियों ने भी जाति,धर्म,क्षेत्र और  साम्प्रदायिकता का कार्ड खेला है.इन्ही सब में वैचारिक पार्टियाँ ख़ुद के जीवन के लिए इतने सालों से संजीवनी तलाशती रही हैं...
आज यदि जनता को विकल्प देने में वैचारिक पार्टियाँ और सिद्धांतकार फ़ेल हुए हैं, तभी 'आप' जैसी पार्टियों में जनता अपनी मुक्ति का विकल्प तलाश रही हैं..         यह हमेशा हुआ है. राष्ट्रीय स्तर पर जनता पार्टी और  जनता दल के अलावा क्षेत्रीय स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियों को समय-समय पर जनता विकल्प के रूप में चुनती रही है.लेकिन पार्टियों ने जनता को कौन सा विकल्प दिया...? शुरू से लेकर अब तक का पन्ना उलट कर देख लीजिए ..निराली ही हाथ लगेगी.
           'आप' पार्टी ने दिल्ली चुनाव में जनता के साथ जो जीवंत जुड़ाव दिखाया है. जनता के साथ बेहतर संवाद स्थापित किया है और लोगों को समझाने में और  भरोसा दिलाने में आश्चर्यजनक सफलता अर्जित की है, यह काम वैचारिक पार्टियाँ भी तो कर सकती थीं...

वैचारिकी का 'मातम' मत कीजिये, कुछ कीजिए. 2014 का विकल्प अभी भी खुला है.

  
डॉ रमेश यादव
सहायक प्रोफ़ेसर, इग्नू, नई दिल्ली.

यदि 'आप' विचारहीन पार्टी तो वैचारिक कौन ? यदि 'आप' विचारहीन पार्टी तो वैचारिक कौन ? Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 12, 2013 Rating: 5

2 comments:

  1. जनता के सवालों के साथ निरंतर खड़ा होना ही मीडिया का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए,जिसका बख़ूबी निर्वाह मधेपुरा टाइम्स कर रहा है.
    भाई राकेश जी के अथक मेहनत अौर सक्रियता से इसमें दिनों -दिन जन-जन तक पहुँचने की छटपटाहट साफ़ दिख रही है.

    निरंतर जनपद में खड़ा होने के लिए
    शुभकामनाएँ !

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